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जैन गुर्जर कवियों की हिन्दी कविता
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तरह सुन्दर और कोमल तथा काया को मक्खन की तरह मुलायम और स्निग्ध मानता है । वह स्वयं को जगत् का स्वामी और नियन्ता समझता है पर अन्त में माता के वचन सुनकर कि स्वामी राजा श्रेणिक घर आया है, शालिभद्र का एक विवाद और क्रन्दन से भर उठता है। राग की अतिशय प्रक्रिया पश्चाताप और वैराग्य में हो उठती है--
"एतला दिन लग जाणतो, हुं कु सहुनो नाथ । माहरे पिण जो नाथ छै, तो छोड़िए हो तृण जिम ए आथ ।।४।। जाणतो जे सुख सासता, लाधा अछ असमान । ते सहु आज असासता, मैं जाण्या हो जिम संध्या वान ॥५॥"
और वह अपनी अनेक सुन्दरी स्त्रियों का परित्याग कर अनंत मुक्तिपथ की । ओर अग्रमर होता है, जहां किसी का कोई नाथ नहीं
"उठयो आमण दूमणो, महल चढयो मन रंग ।
फिरि पाछो जोवै नहीं, जिम कंचली भुयंग ॥"१ यौवन एवं अहम् के इस असाधारण तूफान और उभार में डूवी प्यास का शमन कवि ने निर्वेद द्वारा किया है ।
इसी तरह जिनहर्प प्रणीत 'नेमि-बारहमासा" कृति में कवि ने विरह-विप्रलंम के अनूठे चित्र प्रस्तुत किए हैं । अन्त में रसराज शांत की निष्पत्ति सहजरूप में कराई है । विप्रलंम शृङ्गार की मधुर स्मृतियों में तथा विरहजनित विभिन्न भावों में राजुल डूब रही है। वारहमास वीतते जाते हैं, पर नेमि नहीं आए। राजुल रोती रहती है, अपनी प्रेम पीड़ा मर्म-स्पर्शी शब्दों म अभिव्यक्त करती रहती है। राजुल के विरहीमन की विभिन्न दशाएँ स्पष्ट होने लगती हैं । कवि ने शृङ्गार की इस समस्त मूर्च्छना को गम में पर्यवसित कर दिया है--
"प्रगटै नम वादर आदर होत, धना धन आगम आली भयो है। काम की वेदन मोहि सतावै, आषाढ में नेमि वियोग दयो है। राजुल संयम लेक मुगति. गई निज कन्त मनाय लयो है । जोरि के हाथि कहै जसराज, नेमीसर साहिब सिद्ध जयो है ॥१२॥"२
विप्रलंभ का सारा दृश्य अन्त में शांत की आत्म-समर्पित हो जाता है। 'बारहमापा' नामक कृतियों में भी कवि ने इसी प्रकार की वृत्ति के दर्शन कराए हैं१. जिनराजमूरि कृति कुसुमांजली, शालिभद्र धन्ना चौपाई, संपा० अगरचंद नाहटा,
पृ० १३२-३३ । २. जैन गुर्जर कविओ, भाग ३, खण्ड २, पृ० ११७६ ।
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