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आलोचना-खंड
राजुल राजकुमारी विचारी के संयत नाथ के हाथ गह्यो है । पंच समिति तीन गुपति घरी निज, चित में कर्म समूह दह्यो है ।। राग द्वेप मोह माया नहैं, उज्जल केवल ज्ञान लह्यो है।
दम्पति जाइ वसे शिव गेह में, नेह खरो जसराज कह्यो है ।।१३||१
यशोविजय जी ने अपने कुछ मुक्तक स्तवनों में भी राजुल के विप्रलंन शृङ्गार की व्यथा जनित चेष्टाओं का पर्यवसान शम में कराया है। उदारणार्थ एक स्तवन द्रप्टव्य है-२
"तुझ विण लागे सुनी सेज, नहीं तनु तेज न हार दहेज । आओ ने मंदिर विलसो भोग, वृद्धापन में लीजे योग । छोरूंगी में नहि तेरो संग, गइली चलु जिउं छाया अंग । एम विलपती गइ गड गिरनार, देखे प्रीतम राजुल नार। कंते दीनु केवल ज्ञान, कीधा प्यारी आप समान । मुगति महल में खेल दोय, प्रण में 'जस' उलसित होय ॥"
नेमीश्वर और राजुल के कथानक को लेकर रचित प्रायः सभी कृतियों में अंगीरस शांत ही है। प्रारम्भ में नेमिकुमार की संसार के प्रति उदासीना और अन्त की संयम-तपसिद्धि रसानुकूल है। बीत्र के प्रसंगों में शृङ्गार का मलवानिल मानम को उपित अवश्य कर देता है। मामियों के परिहास में हास्य तथा आयुक्गाला में प्रदर्शित नेमीकुमार के पराक्रम में वीर रस का नियोजन हुआ है। बन्दी-पशुओं की पुकार में करुणा का उन्मेप है; और अन्त में है शान्त रस की प्रतिष्ठा।
जयवंतरि रचित 'स्थूलिभद्र मोहन वैलि'३ कृति का नायक स्यूलिभद्र और नायिका कोश्या दोनों शृङ्गार प्रधान नायक नायिका हैं । स्थूलिभद्र कोश्या के रूप पर मोहित है उसने मधुवन में क्रीड़ा करते उस रूप मुन्दरी को देन्वा है
"वेणी फणि अनुकारा, पूरण चंदमुखी मृग नयना । पीन्नोन्मत कुच मारा, गोर भुजा आमोदरि सुनगा ।"
प्रथम लौकिक धरातल पर दोनों का प्रेम पल्लवित होता है। पर लौकिक प्रेम का पारलौकिक प्रेम में पर्यवमान कराना जैन कत्रियों की प्रमुख विशेषता रही है। यहां दोनों का सांसारिक प्रेम अपनी चरम मीमा पर पहुंच कर अन्त पाता है वहीं से आध्यात्मिक प्रेम का श्रीगणेग होता है। स्थलिभद्र प्रेम के आवरण को १. नेमि-राजमती बारह मास सवैया, जिनहर्प । २. जैन गूर्जर माहित्य रत्नो, भाग १, पृ० १३२-३३ । ३. हस्तलिखित प्रति, अभय जैन ग्रंथालय, बीकानेर, ग्रंथांक, ३७१६ ।
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