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आलोचना-खंड
सेवक का उद्धार करना आपका कर्तव्य है। अब तो आपके द्वारा यह 'ढींग दाम' है, उसे अपना बना लो। हे प्रभु अब अपने दास को सुधार लो आपको बार-बार क्या कहना । हे आनन्दरूप परमात्मा आप अपने नाम की परम रीति का निर्वाह कीजिए।"१
प्रभु से भक्त का जब इस प्रकार का मीठा संबंध जुड़ जाता है तब वह अपनी लघुता के साथ अपना हृदय खोलकर अपने दोषों-पापों का इतिहाम भी उनके सम्मुन्व रख देता है। इस भांति वह अपने पापों को गलाकर आराध्य की ममीपता एवं विशखता का आभास पाता है। महात्मा आनन्दधन भी निश्छल भाव से अपने दोष दर्शन में लग गये हैं। शरीर की भूख मिटाने के लिए उन्होंने क्या क्या नहीं किया ।
"तोये कारण में जीव संहारे, बोले जूठ अपारे ।
चोरी करी परनारी सेवी, जूठ परिग्रह धारे ॥"२
इसी तरह कवि कुमुदचंद्र अपने किए हुए कार्यों की आलोचना करते हुए कहते हैं, "मैंने व्यर्थ ही मनुष्य जन्म खो दिया। जप, तप, व्रत आदि कुछ न किया और न कुछ काम ही किया। कृपण होकर दिन प्रतिदिन अधिक जोड़ने मे ही लगा
१. हरि पतिक के उधारन तुम, कहि सो पीवत मामी ।
मोसू तुम कब उधारो, क्रू र कुटिल कामी ।
और पतित कैइ उधारे, करनी विनु करता । एक काई ना लेउ, जूठे विरुद - धरता ।
निपट अज्ञानी पापकारी, दास है अपराधी । जानू जो सुधार हो, अव नाथ लाज साधी।
गई सो तो गई नाय, फेर नहिं कीजे । द्वारे रह्यो ढींग दास, अपनो करि लीजे । दास को सुधार लेहु, बहुत कहा कहिये । आनन्दघन पर रीत, नाउं की निवहिये । -आनन्दघन पद संग्रह, अध्यात्म ज्ञान प्रसारक मंडल, बम्बई, पद ६३,
पृ० २७४ । २. वही, प्रस्तावना, पृ० १८५ ।