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________________ जैन गूर्जर कवियों की हिन्दी कविता २२१ रहा, दान भी न दे सका। कुटिलों की संगति को अच्छा समझा और साधुओं को संगति से दूर रहा ।"१ कवि किशनदास का आलदैन्य उनके हृदय का बांध तोड़कर सहज भाव से फूट पड़ा है। भक्त प्रभु के समक्ष अपने समस्त पापों की तथा नासमझी की स्वीकृति कर लेता है और निश्छल भाव से किसी भी तरह अपने को निबाह लेने की विनती करता है "ज्ञान की न गूझी शुभ ध्यान को न सूझी। खान-पान की न बूझी अब एव हम मूझी है । मुझसो कठोर गुन-चोर न हराम खोर । तुझसो न और ठौर और दौर चूंहि है। अपनी-सी कीजे मेरे फैल पैन दिल दीजें। किशन निवाहि लीजे जो पै ज्यू हि क्युहि है ।। मेर। मन मानि आनि ठहरयो ठिकानें अब । तेरी गति तुहि जाने मेरी गति तू हि है ।।६१॥"२ कवि ज्ञानविमलसूरि के दिल से अत्यधिक पश्चाताप उठ रहा है कि उन्होंने जोवन व्यर्थ बिता दिया। जिससे संगत करनी चाहिए थी उसकी संगति नहीं की, उससे प्रेम नहीं किया, उसके रंग में न रंगा, उसे भोग नही लगाया । सब कुछ परायों के अर्थ करता रहा और दर-दर भटकता रहा ।३ कवि जिनराजसूरि ने भी खुले दिल से तथा निश्छल भाव से अपना दोष-दर्शन और पश्चाताप का भाव व्यक्त किया है। उन्होने कहा है, मैंने कभी प्रभु का ध्यान नहीं किया । कलियुग में अवतार लेकर कर्मो में फंसा रहा और अनेक पाप करता रहा । बचपन भटकने में, यौवन भोग - १. मैं तो नर भव बाधि गमायो ।। न कियो तप जप व्रत विधि सुन्दर ।। .......... काम भलो न कमायो ।। विरल कुटिल शठ संगति बैठो। साधु निकट विघटायो। -कुमुदचंद्र राजस्थान के जैन संत, व्यक्तित्व एवं कृतित्व, पृ० २७२ । २. गुजरात के हिन्दी गौरव ग्रंथ, डॉ० अम्बाशंकर नागर, उपदेश बावनी, पृ० १८२ ३. वालमीयारे विरथा जनम गमाया । पर संगत कर दर विसि भटका, परसे प्रेम लगाया । परसे जाया पर रंग माया, परकु भोग लगाया ॥१॥ -~-ज्ञानविमलसूरि, प्रस्तुत प्रबन्ध का तीसरा प्रकरण ।
SR No.010190
Book TitleGurjar Jain Kavio ki Hindi Sahitya ko Den
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHariprasad G Shastri
PublisherJawahar Pustakalaya Mathura
Publication Year1976
Total Pages353
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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