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________________ २२२ आलोचना-खंड विलास में और बुढ़ापा इन्द्रियों की शिथिलता में यों ही बीत चला । धर्म का मर्म नहीं पा सका और सांसारिक लाभों का पिंड बना रहा। फिर भी प्रभु ने अपनी उदारता एवं भक्तवत्सलता का परिचय देकर मुझे अपना लिया ।१ आराध्य की महत्ता : भक्त की अपनी लघुता की स्वीकृति के साथ ही आराध्य की महत्ता जुड़ी हुई है । इसे स्वीकार करके ही भक्त के हृदय में श्रद्धा-भाव जगता है। उपास्य के गुणों की चरम अनुभूति पूज्य और पूजक के भेद को लय कर देती है। आराध्य की महत्ता अनेक ढंग से निरूपित की जा सकती है। सूर और तुलसी ने अपने-अपने आराध्य कृष्ण और राम को अन्य देवों से बड़ा बताया है। जैन कवियों ने भी अपने जिनेन्द्र को बड़ा मानकर अपने आराध्य के प्रति अनन्य भाव ही प्रकट किया है। जैन गूर्जर कवियों ने अपने देवों को बड़ा तो बताया है । किन्तु अन्यों को बुरा नहीं कहा। __ आराध्य की महिमा की अनुभूति भक्त-हृदय को पुनीत और आराध्यमय बना देती है। कवि जिनहर्प ने अपनी इस अनुभूति को व्यक्त करते हुए कहा है, "भगवान आदिनाथ की सेवा, सुर, नर, इन्द्र आदि सभी करते है। उनके दर्शन मात्र से पाप दूर हो जाते हैं। कलियुग के लिए वे कल्पवृक्ष की भांति हैं। सारा संसार उनके चरणों में नत है। उनकी महिमा और कीर्ति का कोई पार नही । सर्वत्र उनकी ज्योति जगमगा रही है। संसार-समुद्र को पार करने के लिए वे जहाज-रूप हैं। उनकी छवि मोहिनी और अनुप है, रूप अद्भुत है और वे धर्म के सच्चे राजा हैं । नेत्र जैसे ही उनके दर्शन करते हैं उनमें सुख के बादल बरस पड़ते हैं।"२ कवि यशोविजयजी अपने आराध्य "जिनजी" की अद्भुत रूप-महिमा की आनन्दानुभूति व्यक्त करते हुए कहते हैं "देवो भाइ अजव रूप जिनजी को। उनके आगे और सबन को, रूप लगे मोहि फीको ॥ लोचन करूना अमृत कचोले, मुख सोहे अतिनीको । कवि जम विजय कहे यो साहिब, नेमजी त्रिभुवन टीको ॥"३ कवि चन्द्रकीर्ति ने कहा है, "जिस दिन जिनवर के दर्शन हो जाते है, वह दिन चिन्तामणि के समान धन्य हो उठता है। वह सुप्रभात धन्य है जव कमल की तरह १. जिनराजसूरि कृत कुसुमांजलि, पृ० ६२, ६३ । २. जिनहर्प ग्रंथावली, सपा० अगरचन्द नाहटा, चौवीसी, पृ० १ । ३. गूर्जर साहित्य सग्रह, भाग १, यशोविजयजी, पृ० ८५-८६ ।
SR No.010190
Book TitleGurjar Jain Kavio ki Hindi Sahitya ko Den
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHariprasad G Shastri
PublisherJawahar Pustakalaya Mathura
Publication Year1976
Total Pages353
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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