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जैन गूर्जर कवियों की हिन्दी कविता
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प्रमुदित मुख के दर्शन हो जाते हैं, उनके वचन अमृत से भी मीठे हैं। जिनवर के दर्शन कर जन्म सफल हो जाता है, उनके मीठे गुणों के श्रवण से कर्ण सफल होते है। ऐसे जिनवर की जो पूजा करता है वह धन्य है । हे जिन ! तुम्हारे विना दूसरा कोई देव नहीं, जिनके दर्शन से 'मुगति' रूप स्वर्ग मिल जाता है। ऐसे प्रभु के चरणों में चन्द्रकीर्ति नत-मस्तक होते हैं ।"१ कवि समयसुन्दर का भक्त-हृदय प्रभु के अनन्त, अपार गुणों की महिमा गाता हुआ तृप्त नहीं होता है । वे कहते हैं, 'प्रभु तुम्हारे गुण अनन्त और अपार है। सुर, गुरु आदि अपने सहस्त्रों 'रसना' से तुम्हारा गुणगान करें तब भी उनका पार नहीं आ सकता । तुम्हारे गुणों की गिनती करना आकाश के तारे गिनना है, अथवा सुमेरु पर्वत का भार वहन करना है। चरम सागर की लहरें उनके गुणों की माला फेर रही है, फिर भला उनके गुणों का और कोई कैसे विचार कर सकता है । मैं उनकी भक्ति और गुण का क्या बखान करूं, 'सुविध जिन' अनन्त सुख देने वाले है। हे स्वामी ! तुम ही एक मात्र आधार हो ।"२ कवि वर्मवर्धन के मन में 'प्रभु की सेवा ही सच्ची मिठाई और मेवा है। पुष्प कली जैसे सूर्य को देखकर उल्लसित होती है और हाथी को जैसे रेवा नदी से राग होता है, उसी प्रकार की लगन प्रभु से लग गई है। प्रभु महान है, वह सर्वगुण सम्पन्न है और असीम सामर्थ्यवान भी है। प्रभु-पारस के स्पर्श से मानवात्मा रूपी लोहा भी स्वर्ण बन जाता है। उस स्वर्ण सुन्दरी को मैं अपने दिल से पल भर के लिए भी कैसे दूर करूं?"३ कवि लक्ष्मीवल्लभ ने 'ऋपम जिन स्तवन' में कहा है, प्रभु के दर्शनों से मेरा जीवन पवित्र हो गया है और परम आनन्द की अनुभूति हुई है। "वह अनन्त अनादि ब्रह्म सर्वव्यापी है, मूर्ख उसे समझ नहीं पाते । वह संतों का प्यारा है । परम आत्मरूप, प्रतिपल प्रतिबिम्बित से ब्रह्म को मूरती' ही जान सकती है। ऐसे जिन राज की पूजा करता हुआ कवि दिव्य अनुभव-रस में मग्न है।"४
नामजप - - - - - ...
जिनेन्द्र के नाम-जप की महिमा जैन गूर्जर कवियों ने सदैव स्वीकार की है। सूर और तुलसी की मांति इन कवियों ने भी स्थान-स्थान पर भगवान के नाम की महत्ता का भावपूर्ण निरूपण किया है। इनकी दृष्टि में जिनेन्द्र का नाम लेने से
१. चन्द्रकीर्ति पद, प्रस्तुत प्रबन्ध का दूसरा प्रकरण । - २. समयसुन्दर कृत कुसुमांजलि, सुविधि जिन स्तवन, पृ० ७ । ३. धर्मवर्धन ग्रन्थावली, पृ० ८८ ।
लक्ष्मीवल्लम, ऋषभजिनस्तवन, चौवीसी, जैन गूर्जर साहित्य रत्नो, भाग १, .पृ० २६६ ।