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जैन गुर्जर कवियों को हिन्दी कविता
१.५१
'अध्यात्मक फाग' काव्य की रचना सं० १७२५ के आसपास हुई । १ इसकी एक पन्ने की हस्तलिखित प्रति बड़ौदा के जैन ज्ञान मन्दिर के प्रवर्तक श्री कान्ति विजयजी महाराज के शास्त्र भण्डार में सुरक्षित है । यह लघु कृति महाराजा मयाजीराव विश्वविद्यालय, बड़ौदा के प्राचीन गुर्जर ग्रन्थमाला, अन्य ३ 'प्राचीन फागु संग्रह ' प्रकाशित है । इसमें कुल १३ पद्य हैं |२
यह एक सुन्दर रूपक काव्य है । जब शरीर रूपी वृन्दावन -कुन्ज में ज्ञान - बसंत प्रगट होता है तब वुद्धि रूपी गोपी के साथ पंच गोपों का (इन्द्रियों) मिलन होता है । सुमति रावा के साथ आतम हरि होली खेलते हैं ! प्रसंग बड़ा ही रमणीय है । देखिए -
"आतम हरि होरी खेलिये हो, अहो मेरे ललनां सुमति राधाजू के संगि
सुम सुरतरु की मंजरी हौ, लंई मनु राजा राम,
अब कंउ फाग अति प्रेम कउ हो, सफल कोजे मलि स्याम | आतम ० २
कवि पर वेदान्त और योग की असर भी दिखाई देती है
वजी सुरत की वांसुरी हो, उठे अनाहत नाद,
तीन लोक मोहन भए हो, मिट गए दंद विपाद || आतम० ७”
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लक्ष्मीवल्लभ उपाध्याय की रचनाएँ सं० १७१४ से १७४७ तक की रचित प्राप्त है । अतः उनके साहित्य का निर्माणकाल अठारहवीं शती का दूसरा पाद ही माना जा मकता है । निःसंदेह लक्ष्मीवल्लभ इस शती के उत्तम कवियों में एक है ।
श्री न्याय सागरजी : (सं० १७२८ - १७६७)
ये तपगच्छ की साषगर शाखा में हुए थे । मारवाड़ के मिन्नाल ( मरुधर ) गांव में ओमवाल जाति के शाह मोटा और रूपा के यहाँ इनका जन्म संवत् १७२८ श्रावण शुक्ल ८ को हुआ था । ३ इनका नाम नेमिदास था । श्री उत्तम सागर मुनि के पास दीक्षा ली थी केशरयाजी तीर्थ में दिगम्बर नरेन्द्रकीर्ति के साथ वाद-विवाद में विजय प्राप्त की । संवत् १७६७ में अहमदावाद की लुहार की पोल में इनका स्वर्गवास हुआ |४ इनकी गुरु परंपरा इस प्रकार बताई गई है- धर्मसागर, विमलसागर, पद्मसागर, उत्तमसागर, न्यायसागर 1५
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१. देखिए - प्राचीन फागु संग्रह, संपा० डॉ० भोगीलाल सांडेसरा, पृ० ४३ ।
२. प्रकाशित, प्राचीन फागु संग्रह, संपा० डॉ० मोगीलाल सांडेसरा, पृ० २१७-१८ । ३. जैन गुर्जर कविओ, भाग २, पृ० ५४२ ।
४. जैन ऐतिहासिक गूर्जर काव्य संचय ५. जैन गुर्जर कविओ, भाग २, पृ० ५४२