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________________ ૨૪૬ आलोचना-खंड आदि । आलोच्य युगीन जैन कवियों ने भी अपनी कविताओं में प्रकृति का उपयोग किया है। प्रकृति का आलम्वनगत प्रयोग : प्रकृति जव कवि के भावों का सीधा आलम्बन बन जाती है उस समय उसका निरूपण स्वतन्त्र रूप में होता है । वह काव्य में स्वयं साध्य होती है । इस दृष्टि से कुमुदचन्द्र का एक प्रकृति-चित्र देखिए "कलाकार जोनल जलकुंडी, निर्मल नीर नदी अति अंडी, विकसित कमल अमल दलपंती, कोमल कुमुद समुज्जल कंती। वनवाड़ी आराम सुरंगा, अम्ब कदम्ब उदवर तु गा । करणा केतकी कमरख केली, नवेनारंगी नागर वेली ॥ अगर तगर तरु तिदुक ताला. सरस सोपारी तरल तमाला । वदरी वकुल मदाड वीजोरी, जाई जुई जम्बु जम्भीरी ॥"१ कुमुदचन्द्र प्रकृति का उद्दीपनगत चित्रण : जहां पर प्रकृति कवि के स्थायी भावों को उद्दीप्त करती हुई दिखाई देती है वहां पर प्रकृति का उद्दीपनगत रूप होता है। इस प्रकार का उद्दीपनगत चित्रण प्रायः शृंगार रस में प्राप्त होता है। कवियों ने-आलोच्य युगीन जैन कवियों ने-नेमि-राजुल, स्थूलिभद्र-कोश्या आदि की कथाओं में जहां कहीं विरह-वर्णन प्रस्तुत किया है वहां प्रायः प्रकृति का उद्दीपन रूप में प्रयोग पाया जाता है । इस दृष्टि से इन कवियों के 'बारहमासे' तथा 'फागु' काव्य विशेष रूप से द्रप्टव्य है । भाद्र मास का एक उद्दीपनगत चित्र तेन्निए "दल मनमथ बादलिइ, धन - घन - घटा रे. जे जे वरसइ धार, ते विरह - तनि सटारे । बिजली असि झलकाइ, उभरावि वीछड्या रे, केकि बोल सुणंति कि, मूरछाड पड्या रे ॥२-जयवन्तसरि भाद्र मास की भांति ही प्रकृति अपने पूरे यौवन में अर्थात् वसन्त में विरहिणी को कितना कष्ट देती है। उसका भी दृश्य यहां प्रस्तुत है "मधुकर करइं गुजारव मार विकार वहति । कोयल करई पटहूकड़ा टुकड़ा मेलवा कन्त । 'मलयाचल थी चलकिट फ्लकिउ पवन प्रचण्ड । मदन महानप पाझइ विरहीनि सिरदंड ॥"३ -महानन्द गणि १. भरत वाहवलि छन्द. आमेर शास्त्र भण्डार की प्रति २. नेमिराजुल वार मास वेल प्रवन्ध ३. अंजनासुन्दरी रास, प्रस्तुत प्रबध का दूसरा अध्याय । -
SR No.010190
Book TitleGurjar Jain Kavio ki Hindi Sahitya ko Den
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHariprasad G Shastri
PublisherJawahar Pustakalaya Mathura
Publication Year1976
Total Pages353
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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