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जैन गूर्जर कवियों की हिन्दी कविता
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फाग' में भोज की विरक्तिमय प्रतिक्रिया और खेमचन्द की 'गुण माला चौपाई में आर्य मर्यादा एवं नैतिकता का उज्ज्वल निरूपण हुआ है । 'गुणमाला चौपाई में गुणमाला को उसकी माता आर्य मर्यादा एवं पातिव्रत धर्म की सीख देती हई कहती है---
"सीखा मणि कुवरी प्रत, दीयै रंभा मात । चेटी तू पर पुरुप सु, मत करजे वात ॥ १ ॥ भगति करे भरतार की, संग उत्तम रहजे।
बड़ा रा म्हौ बोले रखे, अति विनय वहजे ॥ २॥"१ जैन समाज में सज्झाय - साहित्य अत्यधिक लोकप्रिय है। विविध ढालों और रागों में विनिर्मित सज्झायें जैन समाज में प्रायः कंठस्त कर लेने की प्रथा है। इस व्यावहारिक गेय साहित्य द्वारा भी परम्परागत उच्च प्रकार की सात्विक भावनाओं का संस्कार सिंचन हुआ है। प्रायः अधिकांश कवियों ने इस प्रकार की सज्झायों का निर्माण किया है । प्रकृति - निरूपण
मनुष्य ने जब से आंख खोली है वह किसी न किसी रूप में प्रकृति से सम्बन्धित रहा है । प्रकृति के सतत साहचर्य के कारण उसने उसके प्रति राग-विरागादि से पर्ण अनेक प्रकार की प्रतिक्रियाए अनुभव की है। वह कभी प्रकृति को देख कर आत्मविभोर हो गया, उसके रूप पर मुग्ध हो गया और उसने प्रकृति के गीत गाए। विरह के क्षणों में, मिलन की मादक घड़ियों में प्रकृति ने उसे सताया अथवा प्रोत्साहन दिया है, रीझते मानव-मन को अभिव्यक्ति की सुकुमार शब्दावली प्रदान की और कहीं-कहीं स्वयं मानव-रूप धर कर प्रकृति मानव को रिझाती रही। यदि काव्य को मनुष्य की आत्मा की अनुभूति की अभिव्यक्ति कहा जाय तो किसी भी कवि द्वारा रचित कोई भी मुन्दर काव्य प्रकृति के स्पों से मुक्त नही हो सकता। जैन कवि भी इसके अपवाद नही है । उनकी रचनाओं में भी प्रकृति किसी न किसी रूप में अवश्य निरूपित हो गई है।
मनुष्य और प्रकृति के परस्पर सम्बन्ध व पूर्ण परिप्रेक्ष्य को देखते हुए साहित्याचार्यों ने प्रकृति-निरूपण की विविध प्रणालियों की ओर संकेत किया है. यथा- प्रकृति का आलम्बनगत चित्रण, प्रकृति का उद्दीपनगत चित्रण, अलंकारगत चित्रण, प्रकृति का मानवीकरण, उपदेश आदि के लिए प्रकृति का काव्यात्मक प्रयोग
१. गुणमाला चौपाई, खेमचन्द, प्रकरण ३