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________________ २४६ मालोचना-वंड सासू को सांस जिठानी को जीउ, दिरानी की देह दुर्ख ही दहावै । कहै धर्मसीह तजो वह लीह, लराइ को मूल लुगाई, कहावै ।।"? कवि जिनराजसूरि ने "शील बत्तीसी" और 'कर्म वत्तीसी' कृतियों में क्रमगः गीलधर्म और कर्म महत्ता का प्रतिपादन किया है। शील का महात्म्य बताता हुआ कवि कहता है "सील रतन जतने करि राखउ, वरजउ विपय विकार जी । सीलवंत अविचल पद पामइ, विषई रुलइ संसार जी ॥"२ कवि यशोविजय जी ने भी अपनी "समाधि शतक" एवं "समता शतक" रचनाओं मे अध्यात्म मार्ग में प्रवृत्त मानव को अपने नैतिक आचरण की याद दिलाई है । कुछ उदाहरण दृष्टव्य हैं-- "लोभ - महातर, शिर चढ़ी, बढ़ी ज्यु तृष्णा - वैलि । खेद - कुसुम विकसित भइ, फले दुःख ऋतु मेली ॥" जाके राज विचार में, अबला एक प्रधान । सो चाहत हे ज्ञान जय, कैसे काम अयान ॥"३ इन कवियों में उदयराज के नीतिपरक दोहे विशेष लोव प्रिय रहे हैं । एक उदाहरण पर्याप्त होगा--- "गरज समै मन और हो, सरी गरज मन और । उदैराज मन की प्रकिति, रहै न एकण ठौर ॥"४ - इन कवियों की इस प्रकार की असंख्य मुक्तक रचनाओं के अतिरिक्त अनेक चौपाई, रासादि प्रवंध रूपों में भी नीतिपरक सद्धर्मी की शिक्षा के असंख्य स्थल आए है । उदाहरणार्थ विनयचन्द्र को 'उत्तमकुमार चौपाई' में उत्तम कुमार का नीति और सदाचार को पोषण करने वाला उदात्त चरित्र वर्णित है। उसी तरह विनयसमुद्र के पद्मचरित्र में सीता और राम का शील प्रधान चरित्र, गुणसागरसूरि के 'कृतपुण्य रास' में दानधर्म की महिमा, महानंदगणि के 'अंजनासुन्दरी रास' में अंजना का उदात्त चरित्र, मालदेव की 'वीरांगदा चौपाई' में पुण्यविषय तथा 'स्थूलिभद्र - १. धर्मवर्द्धन ग्रंथावली, धर्म बावनी, पृ० ६ २. जिनराजसूरि कृत कुसुमांजलि, पृ० ११२ । ३. गूर्जर साहित्य संग्रह, भाग १, पृ० ४६३-६४ ४. नाहटा संग्रह से प्राप्त प्रति
SR No.010190
Book TitleGurjar Jain Kavio ki Hindi Sahitya ko Den
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHariprasad G Shastri
PublisherJawahar Pustakalaya Mathura
Publication Year1976
Total Pages353
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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