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आलोचना-बंड
कायलिंग 'चौप करी काह चूहे सांप को पिटारो काट्यो,
सो अनजाने पाने पन्नग के परे है। किसन अनुद्यमहि चल्यो यही पेट भरी, उद्यम ही करत तुरत चूहा मरे है; देखो क्यों न करी काहु हुन्नर हजार नर,
ह्न है कछु सोई जो विधाता नाथ करे है।"१----किशनदास विरोधाभास 'चन्द उजारा जगि किया मेरइ मनिहुर अंधियार । २-जयवंतसूरि मंदेह के देवी के किन्नरी, के विद्याधर काइ ।'३-समयसुन्दर उदात्त 'श्री नेमिसर गुण निलउ, त्रिभुवन तिलउ रे।
चरण विहार पवित्त, जय जय गिरनार गिरे ॥४-समयसुन्दर स्वभावोक्ति 'पगि घूघरड़ी घमघमइरे, ठमकि ठमकि घरइ पाउ रे ।
बांह पकरि माता कहइरे, गोदी खेलण आउरे ॥ चिवुकारइ चिपटी हीयइरे, हुलरावइ उर लायरे। बोलइ बोल जु मनमनारे, दतिया दोइ दिखाइरे ॥"५
-जिनराजसूरि उपर्युक्त उदाहरण आलोच्यकालीन कवियों की अप्रस्तुत-विधान-क्षमता का पूरा परिचय दे देते हैं। इन अर्थालंकारों की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि वे आरोपित नहीं है, सहज-स्वामाविक हैं। इन अलंकारों के माध्यम से जहां अर्थ में चमत्कारवृद्धि होती है वहां वे भारतीय जीवन के विश्वासों की सहज रूप से अभिव्यक्ति भी करते चलते हैं, यथा प्रौढ़ोक्ति व काव्यलिंग अलंकार । किशनदास के उक्त सांगरूपक में नारी पर वन का आरोप और मन पर मृग का आरोप कर विराग के उपदेश को बड़ी सफलता के साथ प्रस्तुत किया गया है। इसी प्रकार उदात्त अलंकार में गिरनार के प्रस्तुत, वर्णन में 'नेमिसर' को अंगरूप से रखकर गिरनार का महत्व चमत्कारिक ढंग से उपस्थित किया गया है। स्वभावोक्ति तो स्वभावोक्ति है ही। उपर्युक्त उदाहरणों के अतिरिक्त आलोच्य कवियों की कविताओं में अनेक व अनेक प्रकार के अलंकारों का प्रयोग प्राप्त होता है।
१. वही, पृ० १६२ । २. स्थूलिभद्र मोहन वेलि । ३. अगरचन्द नाहटा, सीताराम चौपाई। ४. समयसुन्दर कुसुमांजलि, पृ० ११०।। ५. जिनराजसूरि कृत कुमुमांजलि, पृ० ३१ ।