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जैन गुर्जर कवियों की हिन्दी कविता
। १२३. हेम विजय : (सं० १६७० के आसपास)
हेमविजय जी प्रसिद्ध आचार्य हरिविजयसूरि के प्रशिष्य और विजयसेनसूरि के शिष्य थे ।१ कवि का जीवनवृत्त अज्ञात है। उनके काव्य में युजराती का प्रयोग दिखाई देने से तथा प्रेमी जी के इस कथन से "आगरा और दिल्ली की तरफ बहुत समय तक विचरण करते रहे थे, इसलिए इन्हें हिन्दी का ज्ञान होना स्वाभाविक है" यह अनुमान लगाया जाता है कि ये गुजरात में ही कहीं जन्मे थे । हिन्दी में रचित इनके उत्तम पद प्राप्त हैं जिनमें हीरविजयसूरि तथा विजयसेनसूरि की स्तुतियां तथा तीर्यकरों के स्तवन वर्तमान हैं। मिश्रवन्धु विनोद में भी सम्वत् १६६६ में इनके द्वारा वताए गए स्फुट पदों का उल्लेख प्राप्त होता है ।२ कवि ने नेमिनाथ तथा राजुल के कथा प्रसंगों को लेकर राजुल की विरह-व्यथा को बड़े ही मार्मिक शब्दों में व्यक्त किया है
"धनघोर घटा उनयी जु नई, इततै उततै चमकी बिजली । पियुरे पियुरे पपिहा विललाति जु, मोर किंगार करंति मिली। . विच विन्दु परे ग आंसु झरें, दुनि धार अपार इसी निकली।
मुनि हेम के साहिब देखन कू, उग्रसेन ललि सु अकेली चली ॥" .. लालचन्द : (सं० १६७२-६५)
___ लालचन्द जी खरतरगच्छीय जिनसिंहसूरि के शिष्य हरिनन्दन के शिष्य थे ।३ इस युग में इसी नाम के तीन और व्यक्ति हो गए है किन्तु ये इन तीनों से पृथक् मात्र लालचन्द नाम से ही प्रसिद्ध है। इनकी गुजराती रचनाओं के साथ एक हिन्दी की कृति "वैराग्य वावनी" भी प्राप्त है जिसकी रचना संवत् १६६५ भाद्रशुक्ल १५ को हुई थी। अध्यात्म-विचार और वैराग्यभावना इस कृति का मुख्य उद्देश्य है । कवि सन्तों की सी भाषा में बोलता मिलता है। माषा पर गुजराती प्रभाव स्पष्ट लक्षित होता है। इसकी तुलना हीरानन्द संघवी की "अध्यात्मक बावनी" से की जा सकती है। भद्रसेन : (सं० १६७४-१७१६)
इनके विषय में जानकारी उपलब्ध नहीं होती। मात्र इतना ही सिद्ध होता है कि जब जिनराजसरि ने शत्रुजय पर प्रतिष्ठा की उस समय कवि भद्रसेन व गुणविनय
१. नाथूराम प्रेमी, हिन्दी जैन साहित्य का इतिहास, पृ० ४७ । । २. मिश्रवन्धु विनोद, भाग, १, पृ० ३६७ । ३. जैन गूर्जर कविओ, भाग ३, खंड १, पृ० ६६० ।