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परिचय-खंड
आदि उपस्थित थे ।१ १८४ पदों में रचित इनका "चन्दन मलयागिरि चौपई" एक सुन्दर लोक कथा काव्य है। इस कृति की लोकप्रियता का उज्ज्वल प्रमाण यह है कि उसकी असंख्य प्रतियाँ राजस्थान व गुजरात के भण्डारों में प्राप्त हैं जिसमें कुछ सचित्र भी हैं । संवत् १६७५ के आसपास रचित इस कृति में भाषा सरल तथा शैली प्रसादात्मक है। इसमें कुसुमपुर के राजा चन्दन और शीलवती रानी मलयगिरि की कथा निवद्ध है। गुणसागरसुरि : (सं० १६७५-६१)
___ गुणसागर जी विजयगच्छ के पद्मसागरसूरि के पट्टवर थे। इनकी गुरुपरम्परा इस प्रकार है-विजयगच्छ के विजय ऋषि-धर्मदास-खेमजी-पद्मसागर ।२ 'कृतपुण्य (कयवन्ना) रास', 'स्थूलिभद्रगीत', 'गान्तिजिनविनती रूप स्तवन', 'शान्तिनाथ छन्द' तथा 'पार्श्वजिन स्तवन' आदि कवि की हिन्दी रचनायें हैं। इनके सम्बन्ध में शेष जानकारी उपलब्ध नहीं है । 'कृतपुण्य रास' दान-धर्म की महिमा पर आघृत २० ढालों से युक्त एक कृति है । भाषा गुजराती से अत्यधिक प्रभावित है । 'स्थूलिमद्रगीत' १२ पद्यों की विभिन्न रागों में निबद्ध एक लघु रचना है। इसी प्रकार अन्य कृतियाँ भी कवि की लघु रचनाएँ हैं और भक्ति-भावना से आपूर्ण है। भगवान के दर्शनों की महिमा बताता हुआ कवि कहता है
."पास जी हो पास दरसण की वलि जाइये, पास मन रंगै गुण गाइये । पास बाट घाट उद्यान में, पास नागै संकट उपसमै । पा० । उपसमैं संकट विकट कष्टक, दुरित पाप निवारणो।
आणंद रंग विनोद वारू, अपै संपति कारणो ॥ पा० ॥" श्रीसार : (सं० १६८१-१७०२)
श्रीसार जी खरतर गच्छीय उपाध्याय रत्नहर्ष तथा हेमनन्दन के शिष्य थे।३ इनकी रचनाओं में गुजराती प्रभाव को देखते हुए यह अनुमान करना स्वाभाविक हो जाता है कि इनका सम्बन्ध गुजरात से दीर्घ काल तक रहा होगा। इनकी बारह कृतियों का उल्लेख प्राप्त होता है ।४ इन कृतियों में दो हिन्दी कृतियाँ विशेष उल्लेख्य है-(१) मोती कपासीया संवाद, तथा (२) सार बावनी। 'मोती कपासीया संवाद' १. जैन गूर्जर कविओ, भाग १, पृ० ५६७-६८ । २. वही, पृ० ४६७ । ३. मो० द० देसाई, जैन गूर्जर कविओ, भाग १, पृ० ५३५ । ४. वही, पृ० ५३४-५४१ तथा भाग ३, पृ० १०२९-३२ तथा अगरचन्द नाहटा
राजस्थानी साहित्य का मध्यकाल, परम्परा, पृ० ८०-८१ ।