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__ जैन गुर्जर कवियों की हिन्दी कविता
१२५ इनकी एक महत्वपूर्ण साहित्यिक कृति है। भाषा सरल व प्रसाद गुणयुक्त है किन्तु है गुजराती से प्रभावित ही
"मोती घरव्यउ महीप लइ हुँ मोटो संसार, मोह तमोवडि कोई नहीं, हुं सिगलइ गिरदार ।
संप हुओ-मोती कपासीयें, मिलीया माहो माहि", आदि । 'सार बावनी' की प्रत्येक पंक्ति में कक्काक्रम से एक-एक अक्षर को लेकर एक-एक कवित रचा गया है । आरम्भ 'ॐ' कार से हुआ है। बालचन्द : (सं० १६८५ के आसपास)
कवि बालचन्द लोंकागच्छीय परम्परा में गंगदास मुनि के शिष्य थे ।१ ज्ञानाश्रयी कविता के उज्जवल प्रमाणस्वरूप ३३ पद्यों से पूर्ण तथा भावनगर के जैन प्रकाण में प्रकाशित 'बालचन्द बत्तीसी' के आधार पर उनका गुजराती होना सिद्ध होता है । इनको भाषा सरल व प्रभावपूर्ण है
"सकल पातिक हर, विमल केवल घर, जाको वासो शिवपुर तासु लय लाइए।
नाद विद रूपरंग, पाणिपाद उतभंग,
, आदि अन्त मध्य भंगा जाकू नहि पाइए ।आदि।।" ज्ञानानन्द : (१७ वीं शती)
ज्ञानानन्द जी का इतिवृत्त अभी तक प्राप्त नहीं है । इनके पदों में 'निधिचरित' नाम जिस श्रद्धा के साथ व्यक्त हुआ है उससे यह अनुमान लगाया जा सकता है कि संभवतः निधिचरित आपके गुरु रहे हों। पंडित वेचरदास ने इनका १७ वीं शती में होना माना है२ और डॉ० अम्बाशंकर नागर ने इनकी भाषा में गुजराती प्रभाव को देखकर इनके गुजराती होने का या गुजरात में दीर्घकाल तक रहने का अनुमान लगाया है।३ सन्तों की सी इनकी भाषा में सरलता-सजीवता एवं गांभीर्य के दर्शन होते हैं तथा अभिव्यक्ति में असाम्प्रदायिक शुद्ध ज्ञान मुखर हो उठा है। इस कारण इनका पद-साहित्य भारतव्यापी संत परम्परा का प्रतीक हैराग-जोसी रासा ___ "अवधू. सूतां, क्या इस मठ में।
१. जैन गूर्जर कविओ, भाग १, पृ० ५४२ । २. भजन संग्रह, घूमामृत, २१ ३. गुजरात की हिन्दी सेवा (अप्रकाशित)।