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परिचय-खंड
इस मठ का है कवन भरोसा पड़ जावे चटपट में ।
छिन में ताता, छिन में शीतल, रोगशोक बहु घट में |आदि आदि । हंसराज : (१७ दीं शतो उत्तरार्द्ध)
हंसराज खरतरगच्छीय वर्द्धमानसूरि के शिष्य थे ।१ इनके सम्बन्ध में भी विशेष जानकारी उपलब्ध नहीं है। श्री मो० द० देसाई ने इन्हें १७ वीं शती का कवि माना है ।२ 'ज्ञान बावनी' इनकी एक हिन्दी रचना है जिसकी प्रतियां गुजरात और राजस्थान के अनेक भण्डारों में प्राप्त होती हैं जो इस कृति की लोकप्रियता के साथ इस बात को भी प्रमाणित करती हैं कि कवि का गुजरात से दीर्घकालीन सम्बन्ध रहा. है । 'ज्ञान वावनी' भक्ति एवं वैराग्य के भावों से परिपूर्ण ५२ पद्यों में रचित एक सुन्दर कृति है । इनकी भाषा सरल व प्रवाहयुक्त है--
"ओंकार रूप ध्येय गेय है न कछु जानें ।
___ पर परतत मत मत छहुं मांहि गायो है । जाको भेद पावै स्यादवादी और कहो ।
जाने माने जाते आपा पर उरझायो है।" आदि आदि। ऋषभदास (श्रावक कवि) : (सत्रहवीं शती का उत्तरार्द्ध)
___ ये खंभात के प्रसिद्ध श्रावक कवि थे। तपा गच्छीय आचार्य विजयानंदसूरि इनके गुरु थे ।३ कवि एक धर्मसंस्कारी, बहुश्रु त एवं शास्त्राभ्यासी विद्वान श्रावक थे। ये गुजराती मापा के प्रेमानन्द और अखा की कोटि के कवि थे। इन्होंने छोटी-मोटी अनेक कृतियां रची हैं। श्री मो० द० देसाई ने इनकी ४३ रचनाओं का उल्लेख किया है ।४
हिन्दी के वीरकाव्यों में इनके 'कुमारपाल रास' का उल्लेख हुआ है ।५ इसके अतिरिक्त 'श्रोणिक रास' तथा 'रोहिणी रास' का उल्लेख भी हिन्दी कृतियों में हुआ है।६ कवि का अधिकांश साहित्य अभी अप्रकाशित है। कुछ कृतियों का तो कवि की विभिन्न कृतियों में उल्लेख मात्र ही मिलता है। संभव है ये कृतियां अव भी विभिन्न जैन शास्त्र भण्डारों में अज्ञातावस्था में पड़ी हो इस दिशा विशेष संशोधन की आवश्यकता है। १. ज्ञान बावनी, ५२ वां पद । २. जैन गूर्जर कविओ, भाग ३, पृ० १६२४ । ३. श्री गुरुनामि अती आनंद, वंदो विजयानंद सुरिंद। श्री हीर विजयसरि रास ४. जैन गूर्जर कविओ, भाग १, पृ ४०६-४५८ तथा भाग ३, पृ० ६१७--६३३ । ५. धीरेन्द्र वर्मा सम्मादित--हिन्दी साहित्य, द्वितीय खण्ड, पृ० १७७ तथा १८० । ६. अनेकान्त, वर्ष ११, किरण ४-५, जून-जुलाई. १९५१ ।