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जन गूर्जर कवियों की हिन्दी कविता
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कहा है ।१ महात्मा आनंदघन जी ने भी “जवहरी" और "तबीव" प्रतीकों द्वारा आत्मा की इसी भाव दशा को प्रगट किया है ।२ "भ्रमर" प्रतीक प्रभु गुण पर विलुब्ध आत्मा का प्रतीक है । समयसुन्दर, जिनराजसूरि, जिनहर्ष, यशोविजय आदि कवियों ने इस रस-लुब्ध दशा की अभिव्यक्ति इस प्रतीक द्वारा की है। एक उदाहरण द्रष्टव्य है
"भमर अनुभव भयो, प्रभु गुण वास लह्यो ।"३
मीत, मीता आदि प्रतीक ब्रह्म के अर्थ में प्रयुक्त हुए हैं। धर्मवर्द्धन और ज्ञानानन्द की कविता में ऐसे प्रयोग अधिक हैं । ज्ञानानंद की कविता से एक उदाहरण अवलोकनीय है
"साधो नहिं मलिया हम मीता । मीता खातर घर घर भटकी, पायो नहिं परतीता।
जहां जाउ ताहां अपनी अपनी, मत पख मांखे रीता ॥१॥"४ "विणजारा" प्रतीक राग-द्वेष मोहादि से पूर्ण संसारी आत्मा के लिए प्रयुक्त है । ज्ञानानंद ने भी इसी अर्थ में इसका प्रयोग किया है
"विनजरा खेप भरी भारी ॥ चार देसावर खेम करी तम, लाभ लह्यो बहु भारी ।
फिरता फिरतां भयो तु नायक, लाखी नाम संभारी ॥१॥"५ शरीर की विभिन्न दशाओं के अभिव्यंजक प्रतीकों में नगरी, मन्दिर, दुःखमहल, मठ, माटी, काच रन मैदान, नाव, पिंजरा आदि प्रमुख हैं। महात्मा आनंदघन ने शरीर की क्षणभंगुरता बताते हुए "मठ" प्रतीक का समुचित प्रयोग किया है
"मठ में पंच भूत का वासा, सासा धूत खवीसा, धिन धिन तोही छलनकु चाहे, समझे न बौरा सीसा ॥"६
यहां "मठ" शरीर का प्रतीक है। इस मिट्टी के घर में सनातन सुख खोजना पानी में मछली के पदचिह न खोजने के बराबर है। पांच तत्वों को 'पंचभूत'
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१. वही, विनय विजय के पद नं० ३१, ३२ । २. आनन्दधन पद संग्रह, पद संख्या, १६, ४८ । ३. गूर्जर साहित्य संग्रह, प्रथम भाग, यशोविजयजी, पृ० १२४ । ४. भजन संग्रह धर्मामृत, पं० वेचरदास, ज्ञानानंद के पद, पृ० १३ । ५. भजन संग्रह, धर्मामृत, प० वेचरदास, पृ० १० । ६. आनंदघन पद संग्रह, संपा० बुद्धिसागरसूरि, पद ७