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________________ २८४ आलोचना-खंड और श्वासोच्छश्वास को बड़ा भूत, 'धूत खवीस' कहकर इन प्रतीकों द्वारा शरीर के प्रति वितृष्णा जगाई है। आत्मा की अनुभवहीनता तथा अज्ञानता एवं भोली दशा को 'वौरा सीसा' प्रतीक द्वारा अभिव्यक्त किया गया है। किशनदास ने शरीर की नश्वरता के लिए 'माटि के गढ़ाव', 'रेत की गढ़ी' तया 'प्रेत की मढ़ी' प्रतीकों का प्रयोग किया है ।१ यशोविजय जी ने इस शरीर के लिए 'रण मेदान' प्रतीक का प्रयोग कि है । काम, क्रोध, लोभ, मोहादि शत्रुओं से इसी 'रण मैदान' में लोहा लेना पड़ता है __ "रन मैंदान लरे नहीं अरमि, सुर लरे ज्यु पालो ॥२ जिनहर्प के इसे 'काच का भाजन" कहा है ।३ ज्ञानानंद जी ने शरीर की इस दशा के लिए 'दश दरवाजे', 'नगरी', 'मन्दिर', 'महल' आदि प्रतीकों का सहारा लिया है ।४ आनंदघन जी ने 'दुःख महेल', 'नाव' आदि प्रतीकों का भी प्रयोग किया है। शरीर के प्रति मोह दशा के लिए 'धुघट' प्रतीक का भी अच्छा प्रयोग हुआ है। जिनहर्प ने 'पिंजरा' प्रतीक द्वारा भौतिक शरीर और आत्मतत्व की अभिव्यंजना की है "दस दुवार को पीजरो, तामै पंछी पौन । रहण अचूंवो है जसा, जाण अचूबो कौन ॥४॥"५. अधिकांश जैन-गर्जर कवियों ने इस प्रकार के प्रतीकों का सहारा लेकर शरीर की विभिन्न दशाओं की अभिव्यंजना की है । अन्त में सुख एवं गुणों के अभिव्यंजक प्रतीकों में मधु, फूल, मोती, अमृत, प्रभात-भोर, उपा, दीप, प्रकाश, आदि प्रमुख है। 'म' प्रतीक द्वारा ऐन्द्रिय सुख की अभिव्यक्ति हुई है। ऐन्द्रिय सुख इतना आकर्षक है कि मानव मन उसके प्रति सहज ही विरिक्त नहीं दिखा सकता। समयमन्दर, जिनहर्ष किशनदान आदि कवियों ने सुखेच्छा की भावानुभूति के लिए इस प्रतीक का प्रयोग किया है । १. गुजरात के हिन्दी गौरव ग्रंथ, डॉ० अम्बाशंकर नागर, उपदेश वावनी, पृ० १६६-६७ । २. गूर्जर साहित्य संग्रह, प्रथम भाग; यशोविजयजी, पृ० १६० । ३. जिनहर्प ग्रंथावली, संपा० अगरचन्द नाहटा, ४. जिनहर्प ग्रंथावली, संपा० अगरचंद नाहटा, पृ० ४१६ ।। ५. गूर्जर साहित्य संग्रह, प्रथम भाग, यशोविजयजी, पृ० ७६ ।
SR No.010190
Book TitleGurjar Jain Kavio ki Hindi Sahitya ko Den
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHariprasad G Shastri
PublisherJawahar Pustakalaya Mathura
Publication Year1976
Total Pages353
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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