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जैन गुर्जर कवियों की हिन्दी कविता
"उनंकाराय नमो अलख अवतार अपरंपर
गहिन गुहिर गम्भीर प्रणव अख्यर परमेसर ।"
बाह्याडम्बर की व्यर्थता और अन्तःकरण की विशुद्धता पर बल देता हुआ
कवि कहता है
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"fra fra fasi किस्यू, जीत ज्यों नहीं काम क्रों छल, काति कहनायां किस्यूं, जो नहीं मन मांझि निरमल । जटा ववायां किसू, जांभ पाखण्ड न छंडपड, मस्तक मूड्यां किसू, मन जौ माहि न मूंडपउ ।" लुगडे कि मैले की, जो मन माहि मइलो रहइ, घरवार ज्यां सीवर किसू अगवूझां उदो कहइ ।। ५३ ।। "
वैध विरहणी प्रवन्ध :
७८ दोहों की इसकी एक प्रति अभय जैन ग्रंथालय, बीकानेर में मौजूद है | इसमें भक्ति और श्रृङ्गार का उज्ज्वल समन्वय हुआ है ।
चौविस जिन सवैया :
इसकी एक प्रति का उल्लेख श्री नाहटा जी ने किया है । १ इस कृति में तीर्थकरों की भक्ति में २०० सवैयों की रचना की है ।
उदैराज रा दूहा :
श्री नाहटाजी ने उदयराज के करीव ५०० दोहों का उल्लेख किया है । २ इन्हीं में से अधिकांश दोहों की एक प्रतिलिपि उन्हीं के भण्डार में प्राप्त | उदयराज के नीति-विषयक दोहों विशेषतः राजस्थान में अत्यधिक लोकप्रिय रहे हैं । उदयराज के दोहों की एक प्रति " मनः प्रशंसा दोहा " ३ नाम से जयपुर के बड़े मन्दिर के गुटका नं० १२४ में निवद्ध है । इसमें मन को सम्बोधित कर कवि ने अनेक दोहों की रचना की है ।
कवि को भाषा व्रज व राजस्थानी के संस्पगों से युक्त है । कवि की प्रतिभा उच्च कोटि की नजर आती है ।
१ राजस्थान में हिन्दी के हस्तलिखित ग्रंथों की खोज, भाग ४, अगरचन्द नाहटा, उदयपुर, १६५४, पृ० १२२
२ परम्परा - राजस्थानी साहित्य का मध्यकाल, ले० अगलचन्द नाहटा, पृ० ८
३ राजस्थान में हिन्दी के हस्तलिखित ग्रंथों की खोज, भाग २, पृ० ३५-३६