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________________ १०४ परिचय बंड कल्याण सागर मूरि : ( रं० १६३३ - १७१८ ) ये अंचलगच्छ के ६४ वे पट्टधर आचार्य थे । १ इनका जन्म लोलाडा ग्राम में सं० १६३३ में हुआ था । सं० १६४२ में दीक्षा ली। सं० १६४६ में अहमदाबाद में आचार्यपद प्राप्त हुआ और सम्वत् १६७० में पाटण में गच्छे शपद प्राप्त किया। मम्वत् १७१८ में भुज नगर में इनका स्वर्गवास हुआ। विस्तृत परिचय थी देनाई ने दिया है। २ ___ कल्याण सागररि कवि के साथ एक प्रतिष्ठित एवं प्रभावक आचार्य भी थे । इनकी दो कृतियां उपलब्ध है। प्रथम "अगडदतरास" गुजराती कृति है । जैन गुजराती कवियों का अगडदन प्रिय विषय रहा है । दूसरी कृति “वीसी" गुजरातीमिश्रित हिन्दी रचना है। वीसी : ( वीस विहरमान स्तवन ) इसमें जिनेन्द्र की स्तुति, में रचित २० स्तवन है । भक्ति से पूर्ण इस रचना की एक प्रति सम्वन् १७१७ में भुजनगर में लिखी गई थी। ३ इसमें रचना सम्वत् नहीं दिया गया है। विरहातुर भक्त की पुकार द्रष्टव्य है-- "श्री सीमन्धर सांभलउ, एक . मोरी अरदाम, मुगुण मोहावां तुम विना, रचणी होई छमामो।" अभयचन्द्र : (सं० १६४० - १७२१) ये भ० लक्ष्मीचन्द्र की परम्परा के भ० कुमुदचन्द्र के शिष्य थे। अभ्यचन्द्र ख्याति प्राप्त भद्वारक थे। इनका जन्म सं० १६४ के लगभग "हवडवंश" में हुआ था। २ इनके पिता का नाम "श्रीपाल" तथा माता का नाम "कोडभदे” था। बड़ी छोटी उम्र में ही इन्होंने पंच महाव्रतों का पालन आरम्भ कर दिया था । ५ ___ "अभयचन्द्र" कुमुदचन्द्र के प्रिय शिप्यों में से थे जो उनकी मृत्यु के पश्चात् भट्ठारक गद्दी पर बैठे । भट्ठारक बनने के पश्चात् इन्होंने राजस्थान एवं गुजरात में १ जैन गूर्जर कविओ, भाग १, पृ० ४८६ २ जैन गूर्जर कविओ, भाग २, पृ० ७७५ ३ जैन गूर्जर कविओ, भाग ३, खण्ड १, पृ० ६७० ४ राजस्थान के जैन सन्त - व्यक्तित्व एवं कृतित्व, डॉ० कस्तूरचन्द कासलीवाल, पृ० १४८ ५ हूंबड वंशे श्रीपाल साह तात, जनम्यो रूडी' रतन कोडभदे मात । लवु पगे लीधो महाबत भार, मनवा करी जीत्यो दुद्ध र मार ॥ - धर्मसागर कृत एक गीत ।
SR No.010190
Book TitleGurjar Jain Kavio ki Hindi Sahitya ko Den
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHariprasad G Shastri
PublisherJawahar Pustakalaya Mathura
Publication Year1976
Total Pages353
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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