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________________ ८४ परिचय खंड इनकी १० लघु रचनाएं प्राप्त हैं । १ ये सभी रचनाएं मापा एवं काव्यत्व की दृष्टि से साधाणतः अच्छी रचनाएं हैं । " नेमिवंदना " से एक उदाहरण दृष्टव्य है -२ " ऊजल पूनिम चंद्रसम, जस राजीमती जगि होई । ऊजलु सोहइ अवला, रूप रामा जोइ । ऊजल मुखवर भामिनी, खाय मुख तंबोल । ऊजल केवल न्यान जानू, जीव भव कलोल ।" चन्द्रकीति : ( सं० १६००-१६६० ) गुजरात के वलसाड, वारडोली तथा राजस्थान और गुजरात के सीमावर्ती वागड की भट्ठारक गादियों से विशेष संबंधित भ० रत्नकीर्ति के प्रिय शिष्यों में से चन्द्रकीर्ति एक थे। ये प्रतिभा सम्पन्न तथा अपने गुरु के योग्य शिप्य थे। गुजरात और राजस्थान इनके विहार के क्षेत्र थे । इनके साहित्य निर्माण के केन्द्र विशेषतः वारडोली, भडौच, डूंगरपुर, सागवाड़ा, आदि नगर रहे हैं । इनके जन्म आदि के विषय में विशेष जानकारी नहीं मिलती। कवि की एक रचना जयकुमार आख्यान में उन्होंने अपनी गुरुपरंपरा का वर्णन करते हुए अपने गुरु के रूप में रत्नकीर्ति को स्मरण किया है। ३ इस कृति की रचना वारडोली नगर में संवत् १६५५ में हुई। ४ रत्नकीर्ति अपने भट्ठारक पद पर संवत् १६६० तक अवस्थित रहे। उनके पश्चात उनके शिप्य कुमुदचंद्र भट्टारक पद पर आते हैं । चन्द्रकीति ने कुमुदचंद्र का कहीं भी उल्लेख नहीं किया है । इस आधार पर इनकी अवस्थिति संवत्१६६० तक मानी जा सकती है । डॉ० कासलीवाल जी ने भी इनका समय संवत् १६०० से १६६० तक माना है। ५ १ वही, पृ० १६१ २ इसकी एक प्रति महावीर भवन, जयपुर के रजिस्टर संख्या ७ पत्र सं० ७५ पर लिखी हुई है । कवि की अन्य कृतियां भी रजिष्टर संख्या ८ और ६ में निवद्ध हैं। ३ तेह तणे पाटे सीहावयो रे, श्री रत्नकीरति सुगुण भंडार रे । तास शीप सुरी गुणें मंड्यो रे, चंद्रकीर्ति कहे सार रे । ४ संवत सोल पंचावनें रे, उजाली दशमी चैत्र मास रे ॥ वारडोली नगरे रचना रची रे, चन्द्रप्रभ सुभ आवास रे ॥ ५ राजस्थान के जैन संत-व्यक्तित्व और कृतित्व, डॉ० कस्तूरचंद कासवाल, पृ० १६०
SR No.010190
Book TitleGurjar Jain Kavio ki Hindi Sahitya ko Den
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHariprasad G Shastri
PublisherJawahar Pustakalaya Mathura
Publication Year1976
Total Pages353
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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