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जैन गुर्जर कवियों की हिन्दी कविता
" वरज्यो न माने नयन निठोर । सुमिरि-सुमिरि गुन भये सजल धन, उसंगि चले मति फोर ।। चंचल चपल रहत नहिं रोके, न मानत जु निहोर । नित उठि चाहत गिरि को मारग, जे ही विधि चन्द्र चकोर ॥ तन मन धन यौवन नहीं भावत, रजनी न जावत मोर ।
रतनकीरति प्रभु वेग मिलो, तुम मेरे मन के मोर ॥" एक अन्य पद में राजुल कहती है - नेमिनाथ ने पशुओं की पुकार तो सुन ली पर मेरी पुकार क्यों नहीं सुनी,
" सखी री नेम न जानी पीर ॥ बहोत दिवाजे आये मेरे धरि,
___ संग लेकर हलधर वीर ॥१॥ नेम मुख निरखी हरपीयन सू,
अव तो हाइ मन धीर ॥ तामें पशूय पुकार सुनि करि,
गयो गिरिवर के तीर ॥ २॥ विभिन्न रागों में निवद्ध कवि का यह पद साहित्य भापा-भाव एवं शैली की दृष्टि में उत्कृष्ट वन पड़ा है।
कवि की अन्य रचनाओं में " नेमिनाथ फागु" तथा " नेमिनाथ वारहमासा " विशेष उल्लेखनीय है । १ इनमें कथाभेद नहीं है, वर्णनभेद है । सुमति सागर : ( संवत् १६००-१६६ )
ये भ० अभयचंद्र के पश्चात् भट्ठारक पद पर आने वाले भ० अभयनन्दि के शिष्य थे। गुजरात और राजस्थान दोनों में इन भट्टारकों का निकट का संबंध रहा है। सुमितसागर ब्रह्मचारी थे और अपने गुरु अभयनन्दि और उनकी मृत्यु के पश्चात् भ० रत्नकीति के संघ में रहने लगे थे । इन्होंने अभयवन्दि और रत्नकीर्ति की प्रसंसा में अनेक गीत लिखे है । इन्होंने इन दोनों का समय देखा था और इसी अनुमान पर डॉ० कस्तूरचंद कासलीवालजी ने इनका समय संवत् १६०० से १६६५ तक का माना है । २ १ इनकी हरतलिखित प्रतियां, श्री यशःकीति, सरस्वती भवन, ऋपिभदेव २ राजस्थान के जैन संत व्यक्तित्व, डॉ० कस्तूरचंद कासलीवाल पृ० १६२