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आलोच्य कविता का सामूहिक परिवेश
समारोह के साथ भट्टारक पद पर अभिपिक्त कर दिया। उस पद पर ये संवत् १६५६ तक बने रहे । इनका रचनाकाल इससे कुछ पहले से माना जा सकता है ।
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रत्नकीर्ति अपने समय के प्रसिद्ध कवि एवं विद्वान थे सौन्दर्य, विद्वत्ता, वैभव एवं चरित्र आदि गुणों में ये अतिमानव थे । उन्हें दूसरा उदयन भी कहा गया है । दीक्षा, संयमश्री, मुक्तिलक्ष्मी आदि अनेक कुमारियों के साथ उनका विवाह हुआ था । ये उनके आध्यात्मिक विवाह थे । उनके सौन्दर्य के गीत उनके अनेक शिष्यों ने गाये हैं । तत्कालीन विद्वान और कवि, गणेश द्वारा म० रत्नकीर्ति की सौन्दर्य-प्रसंसा में कहे शब्द अवलोकनीय हैं
" अरघ शशिसम सोहे शुभ माल रे ।
वदन कमल शुभ नयन विशाल रे ॥ दशन दाडिम सम रसना रसाल रे ।
अधर विस्वाफल विजित प्रवाल रे ॥ कंठ कम्बुसम रेखात्रय राजे रे ।
कर किसलय-सम नख छवि छाजे रे ॥"
रचनाएं :
रत्नकीर्ति अपने समय के अच्छे कवि थे । अव इनके ४० पद तथा नेमिना फाग, नेमिनाथ वारहमासा, नेमीश्वर हिण्डोलना एवं नेमिश्वर रास आदि रचनाए प्राप्त हो चुकी हैं । १
भट्टारक पद का उत्तर दायित्व बहुत बड़ा होता था । इनके निर्वाह के लिए कठोर हृदय की आवश्यकता होती थी अधिकांश भट्टारक परिस्थितिजन्य, निर्भय, वन जाते थे । रत्नकीर्ति जन्म जात कवि थे । इनका हृदय अत्यन्त सरस, द्रवणशील एवं सरल था। इनका प्रत्येक पद इस बात का प्रमाण है । संत होने के साथ साथ कवि के मन की रसिकता इनमें फूट पड़ी है । यही कारण है कि इनके पदों में नेमिनाथ के विरह से राजुल की व्यथित दशा एवं उसके विभिन्न मनोभावों का मार्मिक चित्रण है । राजुल की तड़फन से बहुत परिचित थे । किसी भी वहाने ये राजुल और नेमिनाथ का संयोग चाहते थे । राजुल के निष्ठुर नैन सदैव प्रतीक्षारत हैं । हृदय का बांध तोड़कर वे वह निकलना चाहते है । उस गिरि की ओर जाने की आकांक्षा बलवती होती जा रही है, जहाँ नेमिश्वर रहते हैं । यहाँ तो उसका मन ही नहीं लगता - रात भी तो समाप्त नहीं होती,
१ हिन्दी पद संग्रह, महावीर ग्रंथमाला, जयपुर, डॉ० कस्तुरचंद कासलीवाल, पृ०