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.आलोचना-खंट
(क) प्यारे चित विचार ले, तु कहां से आया ।
वेटा बेटी कवन है, किसकी यह माया ॥१॥
तथा (ख) भोर भयो उठ जागो मनुवा,
साहेव नाम संभारो । मानानन्द की उपर्युक्त पंक्तियों में
आये 'प्यारे' और 'मनुवा' गब्द भाषा को भावप्रवण और नाटकीय रूप देने में समर्थ हैं। इसी प्रकार आनन्दघन जी के 'प्रीत की रीत नहीं हो, प्रीतम', 'क्या सौवं उठ जाग वाउरे', 'चेतन चतुर चोगान लरी री' आदि पद तथा किशनदास की 'आग लगे मेरे भाई मेह कहां पाइये', 'अहो मेरे मन मृग खोली देख नान दृग' 'बरे अभिमानी प्रानी जानी तें न ऐसी जानी। पानी के-सी नीक ली. जुवानी चली जात है ॥" आदि पंक्तियों में मापा की वही शक्ति है। कवि धर्मवर्वन के इन सरल उपदेशों में-'भैया क्रोध करो मति कोई' तथा 'मूढ़ मन करत है ममता केती' में यही नाटकीय भाषा के दर्शन होते हैं । इस दृष्टि से. कवि भद्रसेन रचित 'चन्दन 'मलयागिरि चोपई', श्रीसार रचित 'मोती कपासीया संबंव संवाद' तथा समतिकीति रचित 'जिह वादन्त विवाद' रचनाएं अधिक महत्वपूर्ण हैं । माधुर्य और नाद-सौन्दर्य की दृष्टि से जिनराजसूरि की भाषा का एक और उदाहरण दृष्टव्य है"मारगि हे सखि मारगि सहियर साथि,
__ चालण हे सखि चालण पगला चलवलइ । . .. भेटण हे सखि भेटण · आदि जिणंद, मो मनि हे सखि मो मनि निसदिन टलवलइ ॥
-शत्रुजय तीर्थकर स्तवन नादसौन्दर्य के साथ छन्द, तुक, गति, यति और लय का भी सुभग समन्वय इन कवियों की भाषा में देखा जाता है। कुछ कवियों ने अपनी गन्द साधना द्वारा कोमलानभति को सरसता, मधुरता और सुकुमारता के वातावरण में उपस्थित करने के लिए समस्त हस्व वर्णों का प्रयोग किया है और अपनी भाषा कारीगरी का
परिचय दिया है । कवि धर्मवर्द्धन की 'धर्म वावनी' कृति से.एक उदाहरण द्रष्टव्य है. . . " धरत घरम मग, हरत दुरित रग
करत सुकृत मति हरत मरमसी ।। १. जिनराजरि कृत कुसुमांजलि. संपा० अगरचन्द नाहटा, पृ० ३४ .
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