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जैन गूजर कवियों की हिन्दी कविता
२६७ गहत अमल गुन, दहत मदन वन . . .
रहत नगन तन सहत गरम सी । कहत कथन सन बहत अमल मन
तहत करन गण महति परमसी । रमत अभित हित मुमति जुगत जति
___ चरन कमल नित नमत धरमसी ॥५॥"१ छन्द और संगीत विधान :
____ भाषा के स्वाभाविक लय-प्रवाह के लिए छन्द-विधान का भी अपना महत्व है। भापा के लाक्षणिक प्रयोग के लिए लय और छन्द का प्रयोग प्राचीन काल से होता आया है । जैन गूर्जर कवियों ने अपनी कविता में वर्णिक और मात्रिक दोनों ही प्रकार के छन्दों का प्रयोग किया है, किन्तु मात्रिक छन्दों की प्रधानता है । इस युग के अधिकांश गूर्जर जैन कवियों ने तलपदीय पदवन्धों ( देशियों) के साथ साथ दोहा, चौपाई, सोरठा, कवित्त, कुंडलियां, सवैया, छप्पय आदि छन्दों का विशेष प्रयोग किया है। इनमें संगीतमयता से आध्यात्मिक रस बरसा है। इन कवियों की छन्दयोजना वैविध्यपूर्ण तो है ही उसमें एक अनन्त संगीत की गूंज भी है जो विभिन्न प्रकार की ढालों, रागिनियों, देशियों आदि द्वारा हृदय के तार झकृत कर देती है। इस प्रकार इन कवियों ने अपनी कोमल पद रचना में लय, छन्द व रागरागिनियों का सन्निवेश कर अनुभूति को अधिक आह लादमय बनाने का प्रयास किया है। .छंदविधान :
दोहा : संस्कृत के 'श्लोक' और प्राकृत के 'गाथा' छन्द की भांति यह अपभ्रंश का मुख्य छन्द रहा है। डॉ हजारीप्रसाद द्विवेदी जी ने दोहा का मूल स्रोत आमीर जाति के 'विरहागानों' में बताया है। किन्तु दोहा का प्राचीनतम रूप 'विक्रमोर्वशीय' के चतुर्थ अंक में मिलता है। बाद में योगीन्दु के 'परमात्मप्रकाश', 'योगसार' आदि रचनाओं में अपभ्रंश का प्रिय छन्द बन गया।
इस युग के जैन गुर्जर कवियों ने दोहे का प्रयोग भक्ति, उपदेश, अध्यात्म आदि विषयक कविता में किया है । भटारक शुभचन्द्र के 'तत्वसार दहा' में दोहों का ही प्रयोग हुआ है । उदयराज के दोहे भी प्रसिद्ध है । जिनहर्ष की 'दोहा मातृका बावनी', लक्ष्मीवल्लभ की 'दोहावावनी', उदयराज की 'वैद्य विरहिणि प्रवन्ध, 'श्रीमद् देवचन्द्र की 'द्रव्य प्रकाग', 'साधु समस्या द्वादश', 'दोधक', 'आत्महित शिक्षा', समयसुन्दर की 'सीताराम चौपाई' आदि कृतियां' दोहा 'छन्द के प्रयोग की १. धर्मदर्धन ग्रंथावली, संपा० अगरचन्द नाहटा पृ० २।
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