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मालोचना-खंद
सौरभ सुषमा के साथ खिल आई है। लालची प्रिय दूर देश चला गया है, पत्र भी एक न दिया। निर्मोही, निर्दय प्रिय, पता नहीं किस नारी के प्रेम में फंस गया है। वसंत मास की अंधेरी रात है, अकेली कैसे रहूँ, कैसे विरह शांत कर। इस भाव का पद देखिए
"मैं कैसे रहुं सखी, पिया गयो परदेशो |मैं०।। रितु वसंत फूली वनराइ, रंग सुरंगीत देशो ॥१॥ दूर देश गये लालची वालम, कागल एको न आयो। निर्मोही निस्नेही पिया मुझ, कुण नारी लपटायो ।।२।। वसंत मासनी रात अंधारी, कैसे विरह बुझायो ।
इतने निधि चारित्र पुत वल्लभ, ज्ञानानंद घर आयो ॥३॥"१ विनय विजय की विरही आत्मा तव तक जन्म मरण के चक्कर में भटकती रहेगी जब तक जीवन-रूप उस प्रिय को खोज नहीं पायेगी। वह विरह दिवानी बनी प्रिय को ढूढती फिरती है, साज-सज्जा तनिक भी नहीं माती। है मेरी सविओं। मैं अपने रूप रंग और यौवन से पूर्ण देह विना प्रिय के किसे दिखाऊ। मैं उस निरंजन नाथ को प्रसन्न करने के लिए पूर्ण शृङ्गार करूंगी। हाथ में सुन्दर वीणा लेकर सुन्दर नाद से उस मोहन के गुण गाऊंगी। प्रिय को देखते ही मणि-मुक्ताफल से थाल भर कर उनका स्वागत करूंगी। फिर प्रेम के प्याले और ज्ञान की चालें चलेंगी और इस तरह विरह की प्यास बुझाऊंगी। प्रिय सदा मेरी आत्मा में रहेंगे और आत्मा प्रिय में मिलेगी। ज्योत से ज्योत मिल जायगी तब पुनः संमार में नहीं आना पड़ेगा ।२ यह है कवि की अलौकिक प्रेमजन्य तल्लीनता जहां द्वैतभाव का लय हो गया है।
१. २.
भजन संग्रह, धर्मामृत, पं० वेचरदास, पृ० २३ । विरह दिवानी फिरू हुं ढूढती, सेज न साज सुहावेंगे । रूप रंग जोवन मेरी सहियो, पियु विन कैसे देह दिखावेंगे । नाथ निरंजनं के रंजन कु, बोत सिणगार बनावेंगे । कर ले बीना नाद नगीना, मोहन के गुन गावेंगे । देखत पियु कु मणि मुक्ताफल, भरी भरी थाल वधावेंगे । प्रेम के प्याले ज्ञान नी चाले, विरह की प्यास बुझायेंगे । सदा रही मेरे जिउ में पिउजी, पिउ में जिउ मिलावेंगे । विनय ज्योति से ज्योत मिलेगी, तव इहां वेह न आवेंगे ।
-वही, पृ० ४०।