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________________ जैन गुर्जर कवियों की हिन्दी कविता ३७ व्यापार उपयोग है । वोध का कारण चेतना शक्ति है। यह चेतना शक्ति आत्मा में ही है, जड़ में नहीं । अतः जड़ में उपयोग नहीं होता। आत्मा के अनन्त गुण पर्याय हैं उनमें उपयोग मुख्य है। आत्मा स्वयं शाश्वत है, उसकी उत्पत्ति और विनाश नहीं होता। एक आत्मा दूसरी आत्मा से ओत-प्रोत भी नहीं होती। भासक्ति के कारण भी उसमें परिवर्तन नहीं होता । पर्याय रूप से ही उसमें अविरत परिवर्तन होता रहता है । मनुष्य, देव, पशु-पक्षी आदि के आत्म-तत्त्व अशुद्ध दशा के हैं। रंग या रंगीन पदार्थ डालने से पानी अशुद्ध होता है और दृश्य बनता है वैसे ही आत्मा कार्य के संयोग से दृश्य वनती है। शुद्ध स्वरूप में आत्मा अदृश्य और अरूपी है। आत्मा राग द्वेषादि के कारण जड़ पदार्थ से या कर्म से वद्ध होती है। अतः संसार में परिभ्रमण करती रहती है। उसका मूल स्वभाव उर्ध्वगमनी है। जैसे ही वह कर्मो से मुक्त होती है वह उर्ध्वगति को प्राप्त होती है और लोक के अंतिम भाग में स्थित होती है। उसके लिए शास्त्रों में तुम्वी का दृष्टान्त दिया जाता है। जैसे माटी के आवरण से युक्त तुब पानी में डूब जाता है पर माटी के आवरण से मुक्त होते ही वह पानी पर तैरने लगता है उसी प्रकार आत्मा कर्मों के आवरण से बद्ध होकर -संसार रूपी सागर में डूब जाती है पर इन कर्मो के आवरण से मुक्त होते ही वह अपनी स्वाभाविक उर्ध्वगमन की स्थिति को प्राप्त होती है और लोकाकाश के अंतिम भाग में जाकर स्थित होती है । यही मोक्ष है जिसे जैन दर्शन में सिद्ध शिला कहा है। कर्म सिद्धान्त : सब जीवात्माएँ समान है फिर भी उनमें वैषम्य देखने में आता है । यह वैपम्य कर्मो का कारण है। जैसा कर्म वैसी अवस्था । जीव अच्छा या बुरा कर्म करने में स्वतन्त्र है। वह अपने वर्तमान और भावी का स्वयं निर्माता है। कर्मवाद कहता है कि वर्तमान का निर्माण भूत के आधार पर होता है। तीनों काल की पारस्परिक संगति कर्मवाद पर ही अवलम्वित है। यही पुनर्जन्म के विचार का बाधार है। वस्तुतः अज्ञान और रागद्वेष ही कर्म है। ब्राह्मण परम्पराओं में इसे अविद्या कहा है । जैन परिभाषा में यह भावकर्म है । यह भावकर्म लोक में परिव्याप्त सूक्ष्माति सूक्ष्म भौतिक परमाणुओं को आकृष्ट करता है और उसे विशिष्ट रूप अर्पित करता १. जह पंक-लेव रहिओ जलोपरि ठाइ लउओ सहसा । तह सयल-कम्म-मुक्को लोगग्गे ठाइ जीवो ॥ उद्योतगरि विरचिता-कुवलयमाला । २. (क) भगवती सूत्र-स्थानांग सूत्र । (4) दशवकालिक-अध्याय ४ गाथा २५॥
SR No.010190
Book TitleGurjar Jain Kavio ki Hindi Sahitya ko Den
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHariprasad G Shastri
PublisherJawahar Pustakalaya Mathura
Publication Year1976
Total Pages353
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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