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आलोच्य कविता का सामूहिक परिवेश
बनाने का कार्य, जैन. श्रमणों के प्रयत्नों का फल है। यह समन्वय दर्शन, साधना तथा उपासना के क्षेत्र में भी प्रगट हुआ है । स्याद्वाद या अनेकान्तवाद के साथ-साथ गीता में वर्णित अहिंसक यज्ञों की देन इसी समन्वयवादी दृष्टिकोण का प्रतिफल है । पुनर्जन्मवाद, कर्मफलवाद और संस्कारवाद पर अधिक बल देकर जन संस्कृति ने भारतीय संस्कृति की प्रमुख विशेषतानों को अनायास ग्रहण कर लिया है, साथ ही मुक्ति के लिये तप, साधना और सदाचार के साथ-साथ सन्यास की आवश्यकता भी प्रतिष्ठित की है।
हिन्दी और गुजराती साहित्य तो इसके. विशेष ऋणी कहे जा सकते हैं। अपनी दार्शनिक चिन्तनधारा भी अधिक वैज्ञानिक तथा युक्तिसंगत बनाये रखने का कार्य जैन मुनियों और आचार्यों ने किया है । समन्वयवादी दृष्टिकोण के कारण ये . कभी असहिष्णु नहीं वने । सारांशतः जैन संस्कृति अपनी सदाचारिता द्वारा भारतीय संस्कृति को समय-समय पर अधिक दीप्तिमय और विकृति रहित करने में सहायक रही है। जैन-दर्शन के प्रमुख सिद्धान्त :
दर्शन और धर्म भिन्न-भिन्न विपय होते हुए भी दोनों का सम्बन्ध अभिन्न है । प्रत्येक धर्म का अपना दर्शन होता है जिसका व्यापक प्रभाव धर्म पर पड़ता रहता है । धर्म को समझने के लिए दर्शन का ज्ञान आवश्यक है ।
जैन धर्म का भी अपना एक दर्शन है । इस दर्शन में आचार-विचार को लेकर दो प्रकार के प्रमुख सिद्धांतों के दर्शन प्राप्त होते हैं-(१) आचार से सम्बन्ध सिद्धांत में-आत्म तत्त्व, कर्म सिद्धांत, लोक तत्त्व का समावेश होता है । तथा (२) विचार पक्ष से सम्बन्ध रखने वाला अनेकान्तवाद या विभज्जवाद है, जो जैन दर्शन की सबसे बड़ी विशेषता है। इसी अनेकान्तवाद का दूसरा नाम स्याद्वाद है। इन दार्शनिक सिद्धांतों का संक्षिप्त परिचय दे देना प्रासंगिक होगा। आत्म-तत्त्व :
जैन दर्शन द्वैतवादी है । विश्व एक सत्य वस्तु है। उसमें चेतनायुक्त जीवों के साथ जड़ वस्तुएं भी हैं । जीव अनेक हैं। उपगेग जीव का लक्षण है ।३ बोध रूप १. श्रीमद् भगयद् गीता, ४१२६-२८ २. "स्यात्" इत्यव्ययमनकान्तद्योतकम् ।
ततः "स्यावादः" अनेकान्तवादः ॥२॥
-सिद्धहेम शब्दानुगामन-हेमचन्द्र ३. "उपयोगो लक्षणम्"-तत्वार्थ मूत्र १८