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________________ जैन गुर्जर कवियों की हिन्दी कविता दूसरी निवृत्ति तथा मोक्ष पर बल देने वाली श्रमण परम्परा । जैन धर्म श्रमण परंपरा की एक प्रधान शाखा है । इसी श्रमण परम्परा के एक सम्प्रदाय को भगवान पार्श्वनाथ और महावीर के समय में निर्ग्रन्थ नाम से पहचाना गया, जो बाद में जैन धर्म के नाम से प्रसिद्ध हुआ। अतः जैन धर्म की परम्परा वैदिक युग से अविछिन्न रूप से चली आ रही है। वैदिक साहित्य में यतियों के उल्लेख आये हैं, जो श्रमण परम्परा के साधु थे । ऋग्वेद में व्रात्यों के उल्लेख आये हैं ।' उनका वर्णन अथर्वेद में भी है, जो वैदिक विधि से प्रतिकूल आचरण करते थे । मनुस्मृति में लिच्छवी, नाथ, मल्ल आदि क्षत्रियों को व्रात्य माना गया है । ये भी श्रमण परम्परा के प्रतिनिधि थे। संक्षेपतः वैदिक सस्कृति के साथ श्रमण संस्कृति भी भारत में स्वतन्त्र रूप से चल रही थी जो कालान्तर में निर्ग्रन्थ और जैन धर्म के रूप में अपना अस्तित्व बनाये रही। , भारतीय संस्कृति में जैन संस्कृति का स्थान : भारतीय संस्कृति तो उस महासमुद्र की तरह रही है, जिसमें अनेक संस्कृतिस्रोतस्विनियां विलीन हो गई हैं । इसके अंचल में आस्तिक और नास्तिक सभी प्रकार के परस्पर विरोधी विचार भी फले-फूले हैं । इस देश में युगों से वैदिक, जैन और बौद्ध धर्मो के साथ अन्याय धर्म भी एक साथ शान्तिपूर्वक चलते आ रहे हैं। - हम कह चुके हैं कि प्राचीन काल से भारतीय संस्कृति मुख्य रूप से दो प्रकार की विचारधारा में प्रवाहित रही। ब्राह्मण संस्कृति और श्रमण संस्कृति । इन दोनों संस्कृतियों के दो परस्पर विरोधी दृष्टिकोण रहे । एक वर्ग प्राचीन यज्ञ और कर्मकाण्डों का अनुयायी रहा। इसकी संस्कृति का प्रवाह वाह्य क्रिया-काण्ड प्रधान भौतिक जीवन की ओर विशेष गतिशील रहा । दूसरे वर्ग ने श्रमण संस्कृति को अपनाकर धर्म और उसके स्वरूप को पुनः मूर्तित किया। आत्मोन्नति के लिए स्वाश्रयी और पुरुषार्थी बनने की प्रेरणा देने वाली सांस्कृतिक परम्परा ही श्रमण संस्कृति है। इसमें स्वयं जियो और दूसरे को जीने दो का मन्त्र है । वर्ग, वर्ण. या जाति-पांति, ऊँच-नीच का यहाँ कोई भेद नहीं, शुद्ध आचार-विचार की प्रधानता अवश्य है । इसी संस्कृति में आचारगत पाँच व्रतों का-सत्य, अहिंसा, मचीर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह का-अत्यधिक महत्व है । यह श्रमण सस्कृति भारतीय संस्कृति का ही एक अग है। और इसी श्रमण संस्कृति को जैन धर्म ने अपने साधुओं के लिये अपनाया। भारतीय संस्कृति की समन्वयवादी दृष्टि इस संस्कृति का मूल है । सदाचार, तप और अहिंसा की विवेणी वहाकर भारतीय संस्कृति को अधिक मानवतावादी १. ऋग्वेद ७२११५ तथा १०६६।३ २. मनुस्मृति, यध्याय १०
SR No.010190
Book TitleGurjar Jain Kavio ki Hindi Sahitya ko Den
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHariprasad G Shastri
PublisherJawahar Pustakalaya Mathura
Publication Year1976
Total Pages353
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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