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________________ आलोच्य कविता का सामूहिक परिण तीर्थंकर ऋषभदेव की प्रसिद्धि भारतवर्ष के एक आय क्षत्रिय महापुरुष के रूप में भारत युद्ध के समय तक हुई थी । यही कारण है कि जिन-जिन लोगों ने इस महावन्य के निर्माण तथा संवर्द्धन में योग दिया वे ऋषभ के नामोल्लेख के बोचित्य की उपेक्षा नहीं कर सके । ३४ कुछ इतिहासकारों की ऐसी मान्यता है, जो जैनों को स्वीकृत नहीं, कि महाभारत ईसा से तीन हजार वर्ष पहले तैयार हुआ था और रामचन्द्रजी महाभारत से एक हजार वर्ष पूर्व विद्यमान थे । "ब्रह्ममून" में "नैकस्मिन्नसंभवात् " कहकर वेद व्यास ने जैनों के स्यादवाद पर आक्षेप किया है । "ब्रह्माण्डपुराण" और " स्कन्द पुराण" - में भी इक्ष्वांकु वंश में उत्पन्न नाभि राजा और मरुदेवी के पुत्र ऋषभ का उल्लेख व नमन किया गया है ।" ऋग्वेद में भी वृषभनाथ सम्राट को अखण्ड पृथ्वी मण्डल का सार रूप पृथ्वीतल का भूषण, दिव्य-ज्ञान द्वारा आकाश को नापने वाला कहकर उनसे जगरक्षक व्रतों के प्रचार की प्रार्थना की गई । जैन धर्म की प्राचीनता डॉ० राधाकृष्णन ने भी स्वीकार की है । उन्होंने लिखा है- "भागवत पुराण से स्पष्ट है कि जैन धर्म के संस्थापक ऋषभदेव की पूजा ईसा की प्रथम शताब्दी में होती थी । इसके प्रमाण भी उपलब्ध हैं । निस्सदेह जैन धर्म वर्धमान अथवा पार्श्वनाथ से पूर्व प्रचलित था । यजुर्वेद में ऋषभ, अजित और अरिष्टनेमि का उल्लेख है"; ३ प्रो० जयचन्द विद्यालंकार ने लिखा है - "जैनों की मान्यता है कि उनका धर्म बहुत प्राचीन है और भगवान महावीर के पहले २३ तीर्थंकर हुए हैं । इस मान्यता में तथ्य है । ये तीर्थंकर अनैतिहासिक व्यक्ति नहीं थे । भारत का प्राचीन इतिहास उतना ही जैन है जितना वैदिक | ४ सारांशतः ईस्वी पूर्व छठी शताब्दी में भारतीय संस्कृति की दो मुख्य धाराएँ अस्तित्व में थी - एक यज्ञ तथा भौतिक सुखों पर बल देने वाली ब्राह्मण परम्परा और १. " इह हि इक्ष्वाकुकुल वंशोद्भवेन नाभिसुतेन मरदेव्याः नन्दनेन महादेवेन रिपमेण दश प्रकारो धर्मः स्वयमेवाचीर्णः केवल ज्ञान लाभाच्च प्रवर्तितः । " महर्षि व्यास रचित - ब्रह्माण्ड पुराण | निरंजन निराकार रिपमन्तु महारिपिम् ॥ स्कन्द पुराण | २. आदित्या त्वमसि आदित्यसद् आसीद अस्त श्रादद्या वृषभो तरिक्ष जमिमीते वारिमाणं । पृथिव्याः आसीत् विश्वा भुवनानि समाविश्वे तानि वरुणस्य व्रतानि । ॠग्वेद - ३० । अ० ३ । 3. Dr. S. Radhakrishnan, Indian Philosophy, Vol. IP. 287 ४. भारतीय इतिहास की रूपरेखा, भाग १, जयचन्द विद्यालंकार, पृ० ३४३
SR No.010190
Book TitleGurjar Jain Kavio ki Hindi Sahitya ko Den
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHariprasad G Shastri
PublisherJawahar Pustakalaya Mathura
Publication Year1976
Total Pages353
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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