SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 42
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ मालोच्य कविता का सामूहिक परिवेश बल दिया है । बुद्ध का विभज्जवाद और मध्यम मार्ग भी वित्रार प्रधान साम्बदृष्टि का फल है । बुद्ध ने अपने को विभज्जवादी कहा है। जैन आगमों ने महावीर को भी विभज्जवादी कहा है। विभज्जवाद का अर्थ है पृथक करण पूर्वक मत्य-असत्य का निरूपण व सत्यों का यथावत् समन्वय करना। इसके ठीक उल्टा एकांशवाद है जो सोलह आने किसी वस्तु को अच्छी या बुरी कह डालता है। विभज्जवाद : विभज्जबाद में एकान्त दृष्टि का त्याग है । अतः विमज्जवाद और अनेकान्वाद तत्वतः एक ही है । अनेकांत दृष्टि से नयवाद तथा सप्तभंगी विचार का जन्म हुआ । नयवाद मूलतः भिन्न-मिन्न दृष्टियों का संग्राहक है। जैन दर्शन के अनेकांत और स्यावाद गन्द वस्तु की अनेक अवस्थात्मक किन्तु . निश्चित स्थिति का प्रतिपादन करते हैं। अनेकांत शब्द वस्तु की अनेक धर्मता प्रकट करता है, किन्तु वस्तु के अनेक धर्म एक ही शब्द से एक ही समय में नहीं कहे जा सकते, अतः स्याद्वाद शब्द का प्रयोग किया गया है। यह स्यावाद संदेहवाद नहीं है, परन्तु एक निश्चित एवं उदार दृष्टि से वस्तु के पूर्व अध्ययन में सहायक दर्शन है। इसमें एकांत हठ नहीं है, समन्वय का भाव है । इसमें सभी दृष्टियों का समादर है और वस्तु का पूर्ण प्रतिपादन है । अनेकांत शब्द से हम वस्तु की अनेक धर्मता जानते हैं और स्याद्वाद द्वारा उसी अनेक कर्मताओं का कथन करते हैं। - जैन दर्शन में वस्तु को समझने की बड़ी विशेषता उसकी अनेकान्त दृष्टि है । इस आधार पर प्रत्येक वात अपेक्षाकृत दृष्टि से कही जाती है। जब किसी वस्तु को सत् कहा जाय तो समझना चाहिए कि यह कथन उस वस्तु के निजी स्वरूप की अपेक्षा से असत् है । राम अपने पिता की अपेक्षा से पुत्र है और अपने पुत्र की अपेक्षा . से पिता है, अपनी पत्नी की अपेक्षा से पति है, अपने शिष्य की अपेक्षा से गुरु है और अपने गुरु की अपेक्षा से शिष्य है । यदि हम कहें कि राम पिता ही है तो यह वात पूर्ण सत्य नहीं, क्योंकि वह पुन, पति, गुरु व शिष्य भी है । अतः प्रत्येक बात में वस्तु की अनेक दशाओं का ध्यान रखना चाहिए और "ही" का दुराग्रह छोड़कर "भी" का सदाग्रह रखना चाहिए। इससे हमारी दृष्टि में विस्तार आता है और साथ ही वस्तु की पूर्णता भी लक्षित होती है । स्यादवाद या अनेकान्तवाद की दृष्टि • जीवन के नाना संघों को दूर कर शान्ति स्थापना में सहयोग देती है। . १. मज्झिमनिकाय-सुमसुत १५६ २. सूत्रकृतांग १।१४१२२
SR No.010190
Book TitleGurjar Jain Kavio ki Hindi Sahitya ko Den
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHariprasad G Shastri
PublisherJawahar Pustakalaya Mathura
Publication Year1976
Total Pages353
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy