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जैन गूर्जर कवियों की हिन्दी कविता
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वर महिमा मादल बजे हो, चतुराइ मुख चंग।
दया वाणी डफ वाजती हो शोभा तत्व ताल संग खे०॥६॥"१ .
महात्मा आनन्दघन ने अनन्य प्रेम को आध्यात्मिक पक्ष में बड़े आकर्षक ढंग से घटाया है । इन्होंने आध्यात्मिक क्षेत्र में विरह की विविध दशाओं के, अनुपम चित्र भी उतारे हैं । त्रिया विरहिणी है। पति कहीं बाहर है। वह बिना पति के सुध-बुध खो बैठी है । महल के झरोखे में उसकी आंखें झूल रही हैं-प्रतीक्षारत है। पति नहीं आया । अब वह कैसे जीये। विरह रूपी भुजंग उसकी प्राण रूपी वायु को पी रहा है । विरह की आग सर्वत्र व्याप्त है। शीतल पंखा, कुमकुम और चंदन कुछ काम नहीं दे रहे हैं । शीतल पवन से विरहानल बुझता नहीं, वह तो तन के ताप को और भी बढ़ा देता है । ऐसी ही दशा में एक दिन होली जल उठी। सभी फाग और होली के खेल में मस्त हो गये । विरहिणी कैसे खेले । उसका तो मन जल रहा है । उसका शरीर वाक होकर उड़ जाता है। होली तो एक ही दिन जलती है, उसका मन तो प्रतिदिन जलता है । होली के जलने में एक आनन्द है और इस तन की जलन में दुःख है । हे प्रभु ! समता मन्दिर में बैठकर वार्तालाप रस बर्साना, मैं तुम्हारी बलि जाती हूँ अब इतने निष्ठुर कभी न होना
"पिया बिनु शुद्ध बुद्ध भूली हो । । आंख लगाइ दुख महल के झरूखे झूली हो । प्रीतम प्राणपति विना प्रिया, कैसें जीवे हो। प्राण पवन विरहदशा, भुयंगम पीवे हो । गीतल पङ्खा कुमकुमा, चंदन कहा लावे हो । अनल न विरहानल पेर, तनताप बढ़ावे हो ।। फागुन चाचर इक निशा, होरी सिरगानी हो । मेरे मन सब दिन जरे, तन खाक उड़ानी हो ॥ समता महेल विराज है, वाणी रस रेजा हो । वलि जाउं आनन्दघन प्रभु, ऐसे निठुर न व्हेजा हो ।।"२
सच्चे प्रेम में एक अनन्यता होती है। उसमें सर्वत्र प्रिय ही प्रिय है । इस अनन्यता एवं तल्लीनता की अपूर्वता आनन्दघन के पदों में सर्वत्र दृश्यमान है । 'आनन्दवन की सुहागिन के हृदय में ब्रह्म की अनुभूति का प्रेम जगा है। उसकी १. धर्मवर्धन ग्रन्थावली, संपा० अगरचन्द नाहटा, पृ० ६४ । २. आनन्दवन पद संग्रह, श्रीमद् बुद्धि सागर जी, अध्यात्म ज्ञान प्रसारक मण्डल,
बम्बई, पद ४१, पृ० ११६-१२३ ।
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