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________________ २१० आलोचना-खंड अनादिकाल की अज्ञान-नींद समाप्त हो गई। हृदय के भीतर सहज ज्योति रूप भक्ति का दीपक प्रकाशित हो गया है। गर्व गल गया है और अनुपम वस्तु प्राप्त हो गई है । प्रेम का तीर एक ऐसी अचूक तीर है कि वह जिसे लगता है, वह वहीं ढेर हो हो जाता है । वह एक ऐसा वीणा का नाद है, जिसे सुनकर आत्मा-रूपी मृग तिनके चरना भी भूल जाता है। प्रभु प्रेम मय है, उसके प्रेम की कहानी कही नहीं जा सकती।" सुहागण जागी अनुभव प्रीत, निन्द अनान अनादि की मिट गई निज रीति ।।सुहा०॥१॥ घट मन्दिर दीपक कियो, सहज सुज्योति सरूप । आप पराइ आप ही, ठानत वस्तु अनूप ॥सुहा०॥२॥ कहा दिखावु और कू, कहा समझाउं भोर । तीर अचूक है प्रेम का, लागे सो रहे ढोर ॥सुहा०॥३॥ नाद विलुद्धो प्राण कू गिने न तृण मृगलोय । आनन्दघन प्रभु प्रेम की, अकथ कहानी वोय ।।सुहा०॥४॥"१ वात्सल्य भाव भक्ति-रस का स्थायी भाव भगवद्विषयक रति है। रति के तीन प्रधान रूप हैं-दाम्पत्य और वात्सल्य और भगवद्विपयक । दाम्पत्य में मधुर भाव, वात्सल्य में वाल-लीला और भगवद्विषयक में विनय भाव से सम्बन्धित रचनाएं आ जाती हैं । दाम्पत्य और वात्सल्य मानव जीवन की दो प्रमुख वृत्तियां हैं। यों आचार्यों ने वात्सल्य को स्वतंत्र रस रूप में स्वीकार नहीं किया है, किन्तु उसकी चमत्कारिक शक्ति से प्रभावित हो कहीं-कहीं उसे पृथक् रस के रूप में भी स्वीकार किया गया है ।२ इस दृष्टि से इन कवियों की कविता में निरूपित वात्सल्य रस के आलम्बन साधु, सिद्ध, आचार्य, अर्हन्त आदि, आश्रय माता-पिता तथा अन्य परिवारीजन और उद्दीपन विभाव के अन्तर्गत आलंवनगत चेष्टाएँ और उत्सवांदि माने जा सकते हैं। अनुभावों में गोदी लेने का आग्रह तथा नजर उतारने की क्रियाएँ आदि । जैन गूर्जर कवियों की हिन्दी कविता में यथा प्रसंग वात्सल्य के भी अच्छे वर्णन मिल जाते हैं। जन्म के अवसर पर होने वाले आकर्पक उत्सव तथा उनकी १. आनन्दघन पद संग्रह, श्रीमद् बुद्धि सागर जी, अध्यात्म ज्ञान प्रसारक मण्डल, वम्बई, पद ४, पृ० ७ । २. साहित्य दर्पण, विश्वनाथ, ३१२५१ ।
SR No.010190
Book TitleGurjar Jain Kavio ki Hindi Sahitya ko Den
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHariprasad G Shastri
PublisherJawahar Pustakalaya Mathura
Publication Year1976
Total Pages353
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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