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जैन गुर्जर कवियों की हिन्दी कविता
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छटा देखते ही बनती है । जैन साहित्य में तो वालक के गर्भ में आने के पूर्व ही कुछ ऐसे वातावरण की सर्जना होती रही है कि उसके जन्म के पूर्व ही वात्सल्य पनप उठता है । तीर्थंकरों के गर्भ में आने के उत्सव मनाये जाते हैं, जिन्हें जैन साहित्य में 'कल्याणक' कहते हैं | इनका वर्णन बड़ा ही अनुभूति पूर्ण हुआ है ।
बालक ऋषभदेव धीरे-धीरे बड़े होते हैं और कवियों के द्वारा बाल सुलभ सरल, भोली चेष्टाओं का वर्णन भी हृदयकारी ढंग से प्रस्तुत किया गया है
" दिन दिन रूपे दीपतो, कांइ वीज तणो जिम चन्द रे । सुर वालक सायेरमे, सहु सज्जन मनि आणंद रे ।। सुन्दर वचन सोहामणां, वोले वादु अडो वाल रे । रिमझिम वाजे घूघरी, पगे चाले वाल मराल रे ॥ १
कुछ कवियों ने अपने स्तवनों में मी तीर्थकरों की बाल लीलाओं के विशद् वर्णन किये हैं । कवि जिनराजसूरि ने आदि तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव के स्तवन में ऋषभ की सहज क्रीड़ाओं का बड़ा ही स्वाभाविक वर्णन किया है । इस वर्णन को पढ़कर महाकवि सूर और उनके कृष्ण सहज ही स्मरण हो आते हैं । मरुदेवी के मातृहृदय की तथा बालक ऋषभ की सहज, सुलभ क्रीड़ाओं की सरल स्वाभाविक अभिव्यक्ति का वह स्तवन द्रष्टव्य है
"रोम रोम तनु हुलसइ रे, सूरति पर वलि जाउ रे । कवही मोपइ आईयउ रे, हूँ भी मात कहाऊ रे ||३|| पगि घूघरडी घमघमइ रे, ठमकि ठमकि घरइ पाउ रे । वांह पकरि माता कहइ रे, चिवुकारइ चिपटी दीयइ रे, वोलइइ बोल जु मनमना रे,
खेलण आउ रे ॥४॥
गोदी हुलरावइ उर लाय रे । दंतिआ दोइ दिखाइ रे ||५||
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बंगू लटू फेरि रे । फेरइ नीकइ घेर रे ॥ ६ ॥ अइसइ द्यइ आसीस रे । कोडाकोडि वरीस रे ॥१०॥ २
चटक चटपट चालवइ रे, रंग रंगीली चक्रडी रे, वहिणी लूण उतारती रे, चिर जीवे तू नानडा रे,
१. " पम विवाहला", कुमुदचन्द्र, प्रस्तुत प्रबन्ध का दूसरा प्रकरण |
२. जिनराजसूरि कृत कुसुमांजलि, संपा० अगरचन्द नाहटा, पृ० ३१-३२ ।