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आलोचना-खंड
इसी तरह कवि समयसुन्दर ने भी अपने गीतों एवं स्तवनों में प्रभु की वालक्रीड़ा को भी भक्ति रूप में स्वीकार कर वात्सल्य भाव की सृष्टि की है"पग घूघरडी धम घमइ म्हारउ बालुण्डउ,
ठम ठम मेल्हइ पाय म्हारउ नान्हडिय उ । हेजइ मां हियडइ भीतर म्हारउ बालुयडउ,
आणंद अंगि न माय म्हारउ नान्हडियउ ॥३॥ बलिहाटी पुत्र ताहरी म्हारउ वालुयडउ,
तू मुझ प्राण आधार म्हारउ नान्हडियउ ।"१ इस प्रकार भक्ति के क्षेत्र में वात्सल्य भाव के विविध पार्यो और मनोदगाओं को लेकर किये गये अनेक वर्णन, जैन गूर्जर कवियों की हिन्दी कविता में (मुक्तकों एवं चरित्र ग्रन्थों) अंकित हैं। इनमें काव्य-सौष्ठव और सरसता है किन्तु मूर-जैसे मनोदर्शन की क्षमता नहीं आ पाई है। सख्य भाव :
प्रभु की सखा भाव की भक्ति में बराबरी का दर्जा मुग्न्य होता है । इसमें भक्त और भगवान का मित्र भाव पर स्थित खुला संबंध निहित है। भगवान के भी अनुचित या भ्रमपूर्ण किसी काम की आलोचना अथवा उसका निराकरण भक्त मित्र भाव से करने लगता है।
जैन साधना की दृष्टि से कर्म-फल से रहित विशुद्ध आत्मा ही परमात्मा है, जिसे जैन शास्त्रों में सिद्ध कहा गया है। जीव उसी विशुद्ध आत्मा से प्रेम करता है, उसी के साथ उसका सखा भाव है। यह आत्मतत्व ही 'चेतन' नाम से पुकारा गया है । यह चेतन जब भ्रमवशात् उल्टे रास्ते पर चलता है, तो जीव सच्चे मित्र की भांति उसे सावधान करता है और अध्यात्म ज्ञान का उपदेश देता है । यगोविजय जी ने बड़े ही प्रेमपूर्ण ढंग से चेतन को उपदेश दिया गया है कि रे चेतन ! तू अपनी मोह दृष्टि का परित्याग कर ज्ञान दृष्टि को आत्मसात कर
"चेतन ! ज्ञान की दृष्टि निहालो, चेतन। मोह-दृष्टि देखे सो बाउरो, होत महा मतवालो चेतना। मोह-दृष्टि अति चपल करतुहे, भव वन वानर चालो; योग वियोग दावानल लागत, पावत नाहि विचालो चेतना२।
१. समयसुन्दर कृत कुसुमांजलि, संपा० अगरचन्द नाहटा, पृ० १०८ ।