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________________ जन गूर्जर कवियों की हिन्दी कविता २१३ मोह दृष्टि मद-मदिरा-माती, ताको होत उछालो, पर-अवगुन राचे सो अहनिशि, काग अशुचि ज्यौ कालो।चे०।५ ज्ञान दृष्टि मां दोष न एते, करो ज्ञान अजु आलो; चिदानंद-धन सुजस वचन रस, सज्जन हृदय परवालो । चे०।६"? इसी तरह ज्ञानानंद ने भी अपने प्रिय आत्मरूप को बाह्यदृष्टि छोड़कर अन्तमुखी बनने की सलाह दी है ।२ विनय विजय ने अपने आत्माराम की उदासी का पता लगाते हुए कहा है, उलट-पटल कर भौतिक आशाएँ तुम्हें घेर रही है और तुम उसके दास वन गये हो। रात-दिन उन्हीं के बीच रहते हो, पल भर में तुम्हारी पोल खुल जायगी। संसार में आवागमन की फांसी से मुक्त होने के लिए विपम विषय की आशा छोड़ दो । संसार में किस की आशा पूर्ण हुई है, यह तो दुर्मति का ही कारण है । इनकी 'सोहबत' न फुटी तो सन्यासी बनने से क्या होता है। जरा हृदय में विचार कर देखो कि अन्यों के चक्कर में भटकने से तुम्हारी सुमति महारानी रूठ गई है। तुम माया में क्या रम रहे हो, अन्त में वह तुम्हें छोड़कर भाग जायगी।३ कवि धर्मवर्धन ने अपने मन-मित्र को कितने स्नेह भाव से समझाया है "मानो वैण मेरा, यारो मानो वयणा मेरा । सैन तु मोह निद्रा मत सोवे, है तेरे दुश्मन हेरा ॥१॥ मोह वशे तु इण भव मांहे, फोगट देत है फेरा। यार विचार करो दिल अन्तर, तु कुण कौन है तेरा ॥२॥"४ समयसुन्दर ने अपने "जीयु" को मन में दुःखी न करने के लिए सान्त्वना दी है । हर परिस्थिति से समझौता करने और संतोष रखने का सरल उपदेश दिया है "मेरी जीयु आरति कांइ धरइ । जइसा वखत मइं लिखति विधाता, तिण मई क न टरइ ॥१॥"५ कवि ने प्रिय को भी मित्र भाव से सम्बोधन किया है१. गूर्जर साहित्य संग्रह भाग १, यगोविजयजी, आध्यात्मिक पद, पृ० १६० । २. भजन संग्रह धर्मामृत, पं० वेचरदास पद २८, पृ० ३१ । ३. रूठ रही सुमति पटराणी, देखो हृदय विभासी। मुझ रहे हो क्या माया में, अंत छोरी तुम जासी हो॥४॥" -~-भजन संग्रह, धर्ममृत, संपा० वेचरदास दोसी, पृ० ४१, भजन ३८ । ४. धर्मवर्धन प्रन्थावली, संपा० अगरचन्द नाहटा, पृ० ६२ । ५. समयमुन्दर कृत कुसुमांजलि, संपा० अगरचन्द नाहटा, पृ० ४३३ ।
SR No.010190
Book TitleGurjar Jain Kavio ki Hindi Sahitya ko Den
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHariprasad G Shastri
PublisherJawahar Pustakalaya Mathura
Publication Year1976
Total Pages353
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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