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________________ २१४ आलोचना-खंड "एक वीनति सुणउ मेरे मीत हो ललना रे, मेरा नेमि सु मोह्या चीत हो । अपराध बिना तोरी प्रीति हो ललना रे, इह नहीं सज्जन की रीति हो ॥१॥"१ इस प्रकार की भाव राशि अन्य कवियों में भी पर्याप्त मात्रा में मिल जाती है। विनय भाव "भगवद्विपयक रति' में विनय के सभी पद आ जाते हैं। विनय भाव को ही इसमें लघुता, दीनता, आराध्य की महत्ता, याचना, शरणागति, नामस्मरण आदि की भावना प्रमुख रहती है। इस प्रकार भक्तिपूर्ण काव्य आराध्य की महत्ता की ही स्वीकृति है, निजी स्वार्थपरता का लवलेश भी नहीं । १६ वीं शती के जैन गूर्जर कवि ब्रह्म जिनदास भगवान से न तो मोक्ष की याचना करते हैं और न भौतिक वैभव की ही। वे तो मात्र निष्काम सेवा का अवसर भर ढूंढ़ना चाहते हैं ।२ आराध्य की सेवा में भक्त को आनन्द मिलता है। अन्य जीव भी जब इस सेवा में प्रवृत्त होते हैं तो भक्त परम आनन्द की अनुभूति करता है । कवि कुशल लाभ ने प्रभु की सर्वव्यापकता, महानता, दानशीलता और उदारता स्वीकार कर उनकी अपरम्पार महिमा गाई है। उन्होंने कहा है, 'हे भगवान ! इस पृथ्वी पर, समुद्र में तथा जहां अखण्डित सुर चलते रहते हैं ऐसे व्योम में सर्वत्र ही असंख्य दैदीप्यमान दीप का-सा तुम्हारा यश फैला हुआ है। असुर, इन्द्र, नर, अमर विविध व्यन्तर और विद्याधर तुम्हारे चरणों की सेवा करते हैं और निरन्तर तुम्हारा जाप करते हैं। हे पार्श्वजिनेन्द्र ! तुम सम्पूर्ण विश्व के नाथ हो और अपने सेवकों की मनोकामनाओं को चिन्तामणि के समान पूरा करते हो। तुम सम्पत्ति देने वाले हो और वीतरागी मार्ग भी प्रशस्त करते हो ।३ इन कवियों का विश्वास रहा है कि भगवान के चरणों की सेवा करने से अनन्त गुणों का प्रस्फुटन हो जाता है । रिद्धि-सिद्धियां मिलती हैं और चिरकाल तक १. समयसुन्दर कृत कुसुमांजलि, संपा० अगरचन्द नाहटा, पृ० १२४ । २. तेह गुण में जाणी या ए, सद्गुरु ताणी पसावतो। भवि भवि स्वामी सेवमुए, लागु सह गुरु पाय तो ॥ ---आदिपुराण-ब्रह्म जिनदास, आमेर शास्त्र भंडार की प्रति । ३. गौड़ी पार्श्वनाथ स्तवनम्, कुशल लाम, जैन गूर्जर कविओ, भाग १, पृ० २१६ ।
SR No.010190
Book TitleGurjar Jain Kavio ki Hindi Sahitya ko Den
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHariprasad G Shastri
PublisherJawahar Pustakalaya Mathura
Publication Year1976
Total Pages353
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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