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जैन गूर्जर कवियों की हिन्दी कविता
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परमानन्द का अनुभव होता रहता है। कवि जिनहर्ष ने प्रभु के दर्शन से पाप दूर हो जाने और अनन्त आनन्द प्राप्त होने की बात बड़े सहज ढंग से कही है
. . “देख्यौ ऋपम जिनन्द तव तेरे पातिक दूरि गयो।
प्रथम जिनंद चन्द कलि सुर-तरू कंद । ' सेवै सुर नर इन्द आनन्द भयो ॥१॥"१
सेवा जन्य आनन्द इन कवियों के जीवन का चरम लक्ष्य बना रहा है। आराध्य भी कम दयालु या उदार नहीं, वह तो अपने भक्त को भी अपने समान बना देता है। ऐसे 'दीन दयालु' की सेवा की आकांक्षा का संवरण भला भक्त कैसे कर सकता है
"वृपम जिन सेवो बहु सुखकार । परम निरंजन भव भय मंजन
संमारार्णवतार |वृषभ०॥१॥"२ शुभचंद्र आदि पुरुष, आदि जिनेन्द्र के चरणों में अपनी विनीत-भावनाओं की श्रद्धांजलि अर्पित करते हुए कहते हैं
"आदि पुरुष भजो आदि जिनेंदा ।। सकल सुरासुर शेप सुव्यंतर, नर खग दिनपति सेवति चंदा ॥१॥ जुग आदि जिनपति भये पावन, पतित उदारण नाभिख के नंदा। , . दीन दयाल कृपा निधि सागर, पार करो अध तिमिर दिनेंदा ॥२॥ केवल ज्ञान थे सव का जानत, काह कहू प्रभु मो मति मंदा।।
देखत दिन-दिन चरण सरणते, विनती करत यो सूरि शुभ चंदा ॥"३ दीनता एवं दासता
प्रभु के प्रति उत्पन्न भक्त के हृदय की दासता सात्विक होती है । उसमें भौतिक स्वार्थ की गंध नहीं। जैन भक्त कवि अपने प्रभु की दासता में अपना जीवन यापन करने की निरन्तर उत्कंठा करते रहे है। यहां दीनता का अर्थ धिधियाना नहीं, स्वार्थजन्य चापलूसी नहीं, अपितु अपने आराध्य के गुणों से प्रभावित विनम्र याचना करना है। इसे निष्काम भक्ति की ही एक दशा कह सकते है। दीन भक्त अपने प्रभु से याचना भी करता है तो स्वाभिमान के साथ। कवि जिनहर्प प्रभु के दास बनकर
१. जिनहर्प ग्रंथावली, संपा० अगरचंद नाहटा, चौवीसी, पृ० १। २. हिन्दी पद संग्रह, संपा. डॉ० कस्तूरचंद कासलीवाल, जयपुर, पृ० ३ । ३. कस्तूरचंद कासलीवाल, राजस्थान के जैन संत-व्यक्तित्व एवं कृतित्व,
पृ० १६४।