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बालोचना-खंड
दीनदयाल से अपने उद्धार की विनती करते हैं, अविचल सुख की याचना करते हैं, पर
एक स्वाभिमान के साथ
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"जिव वर अब मोहि तारउ, दीन दुखी हुं दास तुम्हारउ | दीनदयाल दया करी मोसु इतनी अरज करू प्रभु तोसु || १ || तारक जउ जग मांहि कहावउ, तउ मोहीं अपणइ पारि रहावउ । अपनी पदवी दोनी न जाई, तउ प्रभु की कैसी प्रभुताई ||२|| इह लोकिक सुख मेरे न चहिये, अविचल सुख दे अविचल रहिये । क्या साहिव मन मांहि विचार, प्रभु जिनहरख अरज अवधारउ ||३||" ? एक अन्य पद में कवि अपने उद्धार की प्रार्थना करता हुआ 'जिणंदराव' से कहता है, 'है जिणंदराय ! तुम मुझे तार दो । करुणा सागर मुझ पर करुणा कर, भवसागर पार उतार दो। तुम दीनदयाल हो, कृपालु हो, कृपा कर मेरे कर्मों की ओर मत देखो। तुम तो भक्तवत्सल हो, फिर भक्त पर दया करने में विचार कैसा । हे प्रभु इतनी प्रार्थना करता हूँ कि शरणागत-तारक की बड़ी उपाधि लेकर मुझे मन टाल देना । जगत् के स्वामी से जिनहर्ष विनती करता है, प्रभु आवागमन के चक्कर का निवारण करो ।२ कवि आनन्दवर्धन प्रभु के चरणों के दास बने हुए हैं, वे उनसे एक क्षण भी विलग होना नहीं चाहते । अपने सरल, विनीत स्वर में कहते हैं, 'मेरे मन में निरन्तर प्रभु चरणों में रहने की बड़ी आश है, एक पल भर के लिए भी मैं उन्हें छोड़ना नहीं चाहता । प्रभु तुम जैसा चाहो वैसे रखो, मैं तो तुम्हारे चरणों का दाम | दुनिया के पागल लोगों से कैसे कहूँ — मेरा दिल तो प्रभु से एकतार हो गया है । मेरे मन की गति एक मात्र तू ही जानता है, और कोई जानने वाला नहीं । हे प्रभु मेरा तुम्हारे साथ ही प्रेम है, तुम्हारी दया वनी रहनी चाहिए और मनोहर प्रभु निरन्तर पास रहें, यही मेरी अरज है ।" ३ कवि समयसुन्दर प्रभु से स्वामी और सेवक का संबंध जोड़ते हुए प्रभु के चरणों की वंदना करते हैं—
१. जिनहर्ण ग्रंथावली, संपा० अगरचन्द नाहटा, पद संग्रह, पृ० ३४८ ।
२. जिणंद राय हमकुं तार-तार |
करुणा सागर करुणा करकड, भवजल पार उतार ॥१॥
दीन दयाल कृपाल कृपाकर, कुरम नहंन निहारउ । भगतवछल भगतन कु उपर करत न काहे विचार ||२|| इतनी अरज करूं हूँ प्रभु सु, पदकज थई मत टारउ | कहइ जिनहरख जगत के स्वामी, आवागमण निवारउ ||३||
- जिनह ग्रंयावनी, संगा० अगरचंद नाहटा, पद संग्रह पृ० ३४९ ॥ आनन्दवर्धन पद प्रस्तुत प्रबंत्र का तीसरा प्रकरण |