SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 219
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ "नमुनमुनमि जिन चरण तोरा, हूं सेवक तू साहिब मोरा ॥१॥ जउ तू जलघर तउ हूं मोरा, . जउ तू चंद तउ हूँ भी चकोरा ॥१॥ सरणइ राखि करइ क्रम जोरा, समयमुन्दर कहइ इतना निहोरा ॥३॥"१ उपालंभ : रात दिन स्वामी की समीपता से सेवक की जैसे कुछ धड़क खुल जाती है, उसी प्रकार प्रभु के निरन्तर ध्यान-सान्निध्य की अनुभूति से उत्पन्न मीठे उपालंम भी भक्त-हृदय से स्वाभाविक रूप से निसृत हो जाते हैं। अपनी सेवक जन्य शालीनता का ध्यान रखते हुए कवि कुमुदचंद्र ने कितनी सरलता एवं स्वाभाविकता से अपने प्रभु को बहुत कुछ कह दिया है "प्रभु मेरे तुमकुं ऐसी न चाहिए । मघन विधन घेरत सेवककुं। मौन घरी किउं रहिये ॥प्रभु०॥१॥ विधन-हरन सुख-करन सबनिकुं। चित्त चिंतामनि कहिये ।। अशरण शरण अबंधु बंधु कृपासिंधु को विरद निबहिये ॥ प्रभु० ॥२॥ हम तो हाथ विकाने प्रभु के। अब तो करो सोई सहिये ॥ , तो फुनि कुमुदचन्द्र कई शरणा गति को सरम जु जहिये ॥प्रभु०॥३॥"२ दीन भक्त अपने दीनबन्धु से किस स्वाभिमान से याचना करता है और मीठे उपालंभ रूप क्या क्या कह जाता है देखिए-३ "जो तुम दोनदयाल कहावत ॥ हमसे अनाथनि हीन दीन कू काहे न नाथ निवाजत ।" - - १. समयसुन्दर कृत कुसुमांजलि, संपा० अगरचंद नाहटा, नमिजिन स्तवन, पृ० १२-१३ । २. कुमुदचंद्र प्रस्तुत प्रवन्ध का दूसरा प्रकरण । ३. हिन्दी पद संग्रह, संपा० कस्तुरचन्द कासलीवाल, जयपुर, पृ० १३-१५ ।
SR No.010190
Book TitleGurjar Jain Kavio ki Hindi Sahitya ko Den
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHariprasad G Shastri
PublisherJawahar Pustakalaya Mathura
Publication Year1976
Total Pages353
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy