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"नाथ अनाथनि कू कुछ दीजै ।
विरद संभारी धारी हठ मनतें, काहे न जग जस लीजै ।"
उस अनन्त प्रेमी की उल्टी रीत देखकर महात्मा आनन्दघन की विरहिणी मी उपालंभ का अवत्तर ढूंढ़ निकालती है
आलोचना-खंड
"प्रीत की रीत नहीं हो प्रीतम ।
मैं तो अपनो सरव शृङ्गारो, प्यारे की मैं वस पिय के पियसंग और के, या गति उपगारि जन जाय मनावो, जो कछु भई इसी तरह लालविजय के 'नेमिनाथ द्वादश मास' में राजुल मीठा उपालंभ देती हुई अपने प्रिय से पूछती हैं, अगर यही हालत करनी थी तो सम्बन्ध ही क्यों जोड़ा । उपालंभ का कौशल देखिए
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न लाई हो । प्रो० ॥ १ ॥ : किन सीखई ॥
सो भई हो || प्री० ॥२" ?
आंन नीसान
"तुमे आगि असाढ़मि क्यों न लीया वरतं तुम काहि कु बरात 'बुलाइ, छप्पन कोड जुरे वंस बजाइ । संग समुद्र विजै बलीभद्र मुरार की नेमि पिया अब आवो घरे इन बातन
तोहि लाज न
में
कहो कोन
आई, बढाइ || १ || २
कवि विनयचंद्र 'नेमिनाथ गीत' में प्रभु को उपालंभ देते हुए कहते हैं, 'है नेमि ! तुम मुक्ति रूपी रमणी पर मोहित हो रहे हो, पर उसमें स्वाद कहां ? अंत में उस स्थिति को भोगना ही है, अभी यह बालकपन छोड़ दो ।' ३ कवि समयसुन्दर अपने ‘करतार गीतम्’ में इसी तरह का उपालंभ देते हुए प्रभु से पूछते हैं, 'रे प्रभु तू कृपालु है कि पापी है, तेरी गति का पता नहीं चलता । '४ श्रीमद् देवचंद्र ने अपनी चौवीसी में एक तरफ प्रभु को मीठा उपालंभ दिया है तो दूसरी ओर विनम्र बनकर प्रभु से दया याचना की है। उन्होंने कहा है, 'प्रभु मुझे अपना सेवक समझकर तार दो,
१. आनंदघन पद संग्रह, अव्यात्म ज्ञान प्रसार के मण्डल, वम्बई, पद ६६, पृ० ३०० । २. लालविजय, नेमिद्वादशमास, जैन-गुर्जर कविओ, भाग ३, खंड १, पृ० १६६-७० । ३. नेमजी हो मुगति रंमणि मोह्या तुम्हें हो राजिं, पिण तिण में नहि स्वाद । नेमजी हो तेह अनन्ते भोगवी हो राजि, छोडउ छोकरवाद ।” - विनयचंद्र कृतं कुसुमांजलि, संपा० भंवरलाल नाहटा, पृ० ६०
दोइ बतियां रे 1
तोरी गतियां रे ॥१॥
४. कबहु मिलइ मुझ करतारा, तउ पूछें
तू ं कृपाल कि तू हइ पापी, लखि न सकू ——समयसुन्दरं कृत कुसुमांजलि, संपा० अगरचंद नाहटा, पृ० ४४३ ।