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________________ १४६ ] परिचय-खंड पूर्ण युवा "शुभचन्द्र" ने भट्टारक बनते ही समाज के अनानान्धकार को दूर करने का तथा गुजरात एवं राजस्थान के विभिन्न स्थलों में विहार-भ्रमण कर अपने प्रवचनों द्वारा जन साधारण के नैतिक, सामाजिक एवं राष्ट्रीय विकास का अपना जीवन लक्ष्य निर्धारित किया। उन्हें इस क्षेत्र में काफी सफलता मिली। इन्होंने साहित्यिक एवं सांस्कृतिक कार्यों में विशेष रुचि दिखाई । 'शुभचंद्र' का जन्म गुजरात के 'जलसेन' नगर में हुआ था ।१ यह स्थान उस समय जैन-समाज का प्रमुख केन्द्र था। इनके पिता का नाम 'हीरा' तथा माता का नाम 'माणकदे' था। इनके बचपन का नाम 'नवलराम' था। 'बालक नवलराम' व्युत्पन्न-मति थे-अतः अल्पायु में ही उन्होंने व्याकरण, न्याय, पुराण, छन्दशास्त्र अष्टसहस्त्री तथा चारों वेदों में निपुणता प्राप्त कर ली थी ।२ भट्टारक अभयचंद्र से ये अत्यधिक प्रभावित हुए और आजन्म साधु-जीवन स्वीकार कर लिया। __श्रीपाल, विद्यासागर, जयसागर आदि इनके प्रमुख शिष्य थे। इन्होंने शुभचंद्र की प्रशंसा में अनेक गीत लिखे हैं। श्रीपाल रचित ऐसे अनेक गीत व पद प्राप्त है, जो साहित्यिक एवं ऐतिहासिक महत्व रखते हैं । भट्टारक शुभचंद्र संवत् १७४५ तक भट्टारक पद पर बने रहे । तदनन्तर 'रत्नचंद्र' को इस भट्टारक पद पर अभिषिक्त किया गया। इन २४-२५ वर्षों में वहत संभव है, इन्होंने अच्छी कृतियां की हो, पर अभी तक इनकी कोई बड़ी कृति देखने में नहीं आई। इनका पद-साहित्य उपलब्ध हैं, जिनमें इनकी साहित्याभिरुचि का-प्रमाण मिल जाता है। इन पदों में कवि के हृदय की मार्मिक भावाभिव्यक्ति हुई है। भ० शुभचंद्र भी 'नेमिराजुल' के प्रसंग से अत्यधिक प्रभावित रहे-यही कारण है कि राजुल की विरहानुभूति एवं मिलन की उत्कंठा हृदय का बांध तोड़कर इन शब्दों में व्यक्त हुई है-- "कौन सखी सुध ल्यावे श्याम की। मधुरी धुनी मुखचंद विराजित, राजमति गुण गावे ॥श्याम।।१।। अंग विभूषण मनीमय मेरे, मनोहर माननी पावे। करो कछू तंत मंत मेरी सजनी, मोहि प्राणनाथ मीलावे ॥श्याम।।२॥" १. 'राजस्थान के जैन संत-व्यक्तित्व एवं कृतित्व' डॉ० कस्तूरचंद्र कासलीवाल, पृ० १६२। २. व्याकर्ण तर्क वितर्क अनोपम, पुराण पिंगल भेद । अप्टसहस्त्री आदि ग्रंथ अनेक जुच्हों विद जाणो वेद रे ।। --श्रीपाल रचित एक गीत ।
SR No.010190
Book TitleGurjar Jain Kavio ki Hindi Sahitya ko Den
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHariprasad G Shastri
PublisherJawahar Pustakalaya Mathura
Publication Year1976
Total Pages353
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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