________________
जैन गूर्जर कवियो की हिन्दी कविता
१४५
मधुर और सजीव है। साहित्यकता कहीं स्खलित नहीं होने पाई है। 'रास' संजक काव्यों के साथ कवि ने अनेक काव्यात्मक शैलियों का प्रयोग किया है। देवीविजय : (सं० १७१३ - १७६० )
ये तपगच्छीय विजयसिंहरि के प्रशिष्य थे। इनके गुरु का नाम उदयविजय था। १ इनकी गुजराती कृति 'विजयदेवसूरिनिर्वाण' एक ऐतिहासिक कृति है, जो सं० १७१३ खंभात में रची गई थी। श्री देसाई ने इनकी एक और गुजराती कृति 'चम्पक रास' का भी उल्लेख किया है, जिसकी रचना सम्बत् १७३४ श्रावण सुदी १३ को घाणेराव में हुई । २ इनके विषय में विशेष जानकारी उपलब्ध नहीं।
हिन्दी में रचित इनकी एक कृति 'भक्तामर स्तोत्र रागमाला काव्य' प्राप्त है, जो विभिन्न रागों में सं० १७३० पौस सुदी १३ के दिन विनिर्मित हुई । ३ इसमें ४४ पद्य है । अव यह भीमसी माणेक, वम्बई द्वारा प्रकाशित भी है ।
प्रारम्भ मे कवि जिन वंदना करता हुआ कहता है"भक्त अमर गन प्रणत मुगट मणि,
उल्लसत प्रभाएं न ताकू दूति देत हे। भ० १ पाप तिमिर हरे सकृत संचय करें,
जिनपद जूगवर, नीके प्रनमेतु है । भ० २" भट्टारक शुभचन्द (द्वितीय) : (सं० १७२१ - १७४५ )
'शुभचन्द्र' नाम के पांच भट्ठारक हुए है । इनमें से '४ शुभचन्द्र' का उल्लेख "मट्टारक संप्रदाय" मे हुआ है । ४ इनमें से विजयकीर्ति के शिष्य भ० शुभचन्द्र का परिचय दिया जा चुका है। विवक्षित पांचवें शुभचन्द्र, भ० रत्नकीर्ति के प्रशिष्य एवं भ० अभयचन्द्र के शिष्य थे, जिनका 'भटा० अभयचन्द्र' के पश्चात् मम्बत् १७२१ की ज्येष्ठ सुदी प्रतिपदा को पोबन्दर में एक विशेष उत्सव का आयोजन कर, भट्ठारक गादी पर अभिषेक किया गया । ५ १ श्री विजयसिंह सूरीसर केरा, सीस अनोपम कहीइजी,
उदयविजय उवझाय शिरोमणि, बुद्धि सुरगुरु लहीइजी । -विजयदेवसूरि, जैन गूर्जर कविओ, भाग ३, खंड २, पृ० १३२४ २ जैन गूर्जर कविओ, भाग २, पृ० ३४६ ३ वही, भाग ३, खंड २, पृ० १३२४ ४ मट्ठारक सम्प्रदाय, पृ० ३०६ : 'राजस्थान के जेन सत - व्यक्तित्व एवं कृतित्व' ड० कस्तुरचन्द कासलीवान पृ० १६१