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परिचय खंड
"ऊकार अपार जात आधार, सर्व नर नारी संसार जपे है। बावन अक्षर माहिं धुरक्षर, ज्योति प्रद्योतन कोरि तपे है । सिद्ध निरंजन भेख अलेख सरूप न रूप जोगेन्द्र थपे है। ऐसो महातस है ऊकार को, पाप जसा जाके नाम खपे है ॥१॥"
"क्षीर सुसीम मुंडावत हैं केइ लम्ब जटा सिर केइ रहावं" के द्वारा कवि वाह्याडम्बर का विरोध करता है और अन्त है में 'ग्यान बिना शिप पंथ न पावै" कह कर ज्ञान की प्रतिष्ठा करता है।
____संगीतात्मक गेय पदों में रचित कवि की तीसरी प्रसिद्ध रचना है 'चौवीसी इसमें तीर्थकरों की स्तुति गाई गई है। इन स्तुतियों के माध्यम से कवि के भक्त हृदय के दर्शन हुए बिना नहीं रहते--
"साहिब मोरा हो अब तो माहिर करो, आरति मेरी दूरि करो। खाना जाद गुलाम जाणि कै. मुझ ऊपरि हित प्रीति धरी ॥ आदि "
सम्वत् १७१३ में रचित 'उपदेश छत्तीसी' १ में ३६ पद्य संकलित हैं । अन्य भक्ति काव्यों की भांति ही इसमें भी संसार की माया मोह आदि को छोड़ कर भगवान ( जितेन्द्र ) के चरणकमलों में समर्पित होने का उपदेश दिया गया है । सम्वत् १७३० आपाढ़ शुक्ल ६ को रचित 'दोहा मातृका बावनी' में जीवनोपयोगी सद्धर्म की अभिव्यक्ति हुई है
_ 'मन तें ममता दूरि कर समता घर चित मांहि । रमता राम पिछाण के, शिवपुर लहै क्यु नाहिं ।।'
कवि जिनहर्प ने नेमिनाथ और राजमती की प्रसिद्ध कथा लेकर दो बारहमासों की रचना की है--(१) नेमिवारहमासा, १ तथा (२) नेमि-राजमती बारहमास सवैया । २ इन बाररमासों में प्रेम और विरह का बड़ा ही मार्मिकं चित्रण हुआ है । इनकी अन्य प्रमुख रचनाओं में 'सिद्धचक्र स्तदन', 'पार्श्वनाथ नीसाणी, 'ऋषिदता चौपई', तथा 'मंगल गीत' महत्वपूर्ण हैं। इनमें क्रमशः सिद्धचक्र की भक्ति, पार्श्वनाथ की स्तुति, महाराजा श्रीणिक का चरित्र, मुनि आदि की स्तुतियां तथा अरिहंतो, सिद्धों आदि की स्तुतियां निवद्ध हैं ।
कवि की भाषा प्रसादगुण सम्पन्न, परिमार्जित एवं सुललित है। माधुर्य और रसात्मकता इनकी भाषा के विशेश गुण हैं। कवि द्वारा प्रयुक्त ब्रज भाषा तो और भी १ वही, पृ० १०१ २ जन गूर्जर कविओ, भाग ३, खण्ड २. पृ० ११७१ ३ जिनदर्ष ग्रथावली प० २००-२२२
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