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जैन गुर्जर कवियों की हिन्दी कविता
रात दिवस सूतां जागतां रे, दिलथी दूर न होय; अंतर जामी आपणो रे, तिलक समो तिहुं लोय ॥२॥” लोक-गीतों की विभिन्न देशियों में ढले चौवीसी के स्तवन अतीव सुन्दर एवं
मर्मस्पर्शी है ।
जिनहर्ष : (सं० १७१३ - १७३८)
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जिनहर्ष खरतरगच्छ के आचार्य जिनचन्द्रसूरि की परम्परा में मुनि शांतिहर्ष के शिष्य थे ।१ कवि जिनह के विषय में कोई प्रामाणिक जानकारी नहीं मिलती । अपनी 'जसवावनी', 'दोहामातृका बावनी', बारहमासाद्वय तथा दोहों में इन्होंने अपना नाम 'जसा' या 'जसराज' दिया है । संभवतः यह उनका गृहस्थावस्था का नाम हो । इनकी सर्वप्रथम रचना 'चन्दन मलयागिरि चोपाई' (सम्वत् १७०४ में रचित ) प्राप्त होती है जिसके आधार पर अगरचन्द नाहटा ने 'जिनहर्षग्रंथावली' में सम्वत् १६८५ के लगभग इनके जन्म लेने का अनुमान किया है और दीक्षा सं० १६७५ से १६६६ में लेने का अनुमान लगाया है। नाहटा जी इन्हें मारवाड़ में जन्मा मानते है |२ और नाथूराम प्रेमी इन्हें पाटण का निवासी बताते है | ३ रचनाओं के स्थानों पर ध्यान देने से इतना तो अवश्य सिद्ध होता है कि जिनहर्ष जी, चाहे कही भी पैदा हुए हों, गुजरात व राजस्थान दोनों से अत्यधिक सम्बद्ध थे ।
सभी कृतियों के पीछे कवि का प्रमुख लक्ष्य जन कल्याण प्रतीत होता है । इसीलिए इन्होंने अपनी रचनाएँ लोकभाषा में की है । इन कृतियों की एक लम्बी सूची 'जिनहर्ष ग्रंथावली' में दी गई है । यहाँ कुछ प्रमुख रचनाओं के आधार पर कवि के साहित्यिक व्यक्तित्व को देखने का प्रयास किया जा रहा है ।
" नन्द वहोत्तरी -- विरोचन मेहता वार्ता " - संवत् १७१४ में रचित इस रचना में राजानन्द तथा मंत्री विरोचन की रसप्रद कथा दी गई है । इस दूहाबन्ध वार्ता में कुल ७२ दोहे है, भाषा राजस्थानी हिन्दी है
"सूरवीर आरण अटल, अनियण कंद निकंद ।
राजत हैं राजा तहां, नन्दराई आनन्द ||२|| "
संवत् १७३८ फाल्गुन वदी ७ गुरुवार के दिन रचित 'जसराज बावनी' कवि की दूसरी प्रमुख रचना है ।४ इस ग्रंथ में ५७ सवैए है । इस कृति का आरम्भ ही निर्गुणियों की भाँति किया है
१. जैन गुर्जर कविओ, खण्ड २, भाग ३, पृ० ११७० ।
२. जिन ग्रंथावली, पृ० २६ ॥
३. हिन्दी जैन साहित्य का इतिहास, पृ० ७१ ।
४. राजस्थान के हस्तलिखित ग्रंथों की खोज, भा० ४, पृ० ८५ ।