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परिचय-चंड
तुम हीं हमारे मनके मोहन, प्यारे परम सनेहा वो । १ सलूने” कृति सुन्दर एवं सरस है । भाषा गुजराती प्रभावित खड़ी बोली है । हेमसागर : (सं० १७०६ आसपास)
आप अंचलगच्छीय कल्याणसागरसूरि के शिष्य थे ।१ इनका विशेष इतिवृत्त अज्ञात है ।
इनकी एक हिन्दी कृति 'छंदमालिका' सूरत के समीप हंसपुर (गुजरात) में रचित प्राप्त है । २ इसमें अत्यधिक गुजराती प्रयोगों को देखते हुए कवि के गुजराती होने का अनुमान किया जा सकता है ।
'छन्दमालिका' एक छन्द ग्रंथ है, जिसमें १६४ पद्य हैं । इसकी रचना संवत् १७०६ भाद्रपद वदी ९ को हुई थी । ३ कई भण्डारों में इसकी प्रतियां सुरक्षित हैं । भाषा शैली की दृष्टि से एक उदाहरण पर्याप्त होगा
"अलस लख्यौ काहुन परें, सव विधि करन प्रवीन । हेम सुमति वंदित चरन, घट घट अंतर लीन ॥ १ ॥ "
वृद्धि विजयजी : (सं० १७१२ - ३०
)
तीन वृद्धि विजय हो गये हैं । प्रथम तपगच्छीय विजयराजसूरि की परंपरा में रत्नविजय और सत्यविजय के शिष्य थे । दूसरे तपगच्छ के विजयप्रभसूरि के समय में श्री लाभविजय के शिष्य थे और तीसरे १६ वीं शताब्दी में 'चित्रसेन पद्मावती रास' के कर्ता वृद्धिविजय हो गये हैं । विवक्षित वृद्धिविजय प्रथम रत्न विजय और सत्य विजय के शिष्य हैं । इनके जन्म, मृत्यु, विहारादि के विषय में कोई जानकारी उपलब्ध नहीं है । इनकी ४ गुजराती रचनाएँ प्राप्त हैं ॥४
चौवीसी गुजराती मिश्रित हिन्दी की रचना है। इसकी रचना संवत् १७३० में औरंगावाद में हुई ।५ इसमें कवि की भक्ति एवं वैराग्य दशा की सरल अभिव्यक्ति है । कवि किस व्यग्रता एवं आतुरता से प्रभु को दर्शन देने की विनती करता है"शांति जिणेसर साहिदो रे, वसियो मन मां आई, वीसायो नवि वीसरई रे, जो वरिसां सो थाई ॥ १ ॥
१. छंदमालिका, राजस्थान में हिन्दी के हस्तलिखित ग्रंथों की खोज, भाग २, पृ० है । २. वही ।
३. छंदमालिका, राजस्थान में हिन्दी के हस्तलिखित ग्रंथों की खोज, भाग २, पृ० ε ४. जैन गुर्जर कविओ, भाग ३, खण्ड २, पृ० १२०० तथा भाग २, पृ० १५०-५२ । ५. जैन गूर्जर साहित्य रत्नो, भाग १, पृ० १४७, सूरत से प्रकाशित |