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जैन गुर्जर कवियो की हिन्दी कविता
क्युं कहो कोई लोक दिवाने, मेरे दिले एक तार रे ;
मेरी अंतरगति तु ही जानत, ओर न जानन हार रे ॥ २ ॥ " वैराग्य और उपदेश की संत-वाणी भी उतना ही प्रभावोत्पादक हो उठी है, -
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" योवन पाहुना जात न लागत वार ।
चंचल योवन थिर नही रे, ज्यान्यो नेमि जिना ॥ १ ॥
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४ ॥"
दुनिया रंग पतंगसी रे, बादल से सजना ; ए संसार असारा ही रे, जागत को सुपना ॥ चौवीसी की रचना सं० १७१२ में हुई । १ इसकी एक प्रति नाहटा संग्रह से प्राप्त है । कवि की अन्य रचनाओं में 'अन्तरीक स्तवन', 'कल्याण मन्दिर ध्रुपद, 'भक्ताभर मवैया' आदि विशेष उल्लेखनीय है । प्रायः इन कृतियों का विषय प्रभुभक्ति है । 'भक्ताभर सवैया' से एक उदाहरण द्रष्टव्य है
"सँ अकुले कुल मच्छ जहां गरजे दरिया अति भीम मयी है, ओ वडवानल जा जुलमान जलै जल में जल पान क्यो है । लोल उतंराकलोलनि कै पर वरि जिहाज उच्छरि दयो है, ऐसे तुफान में तौहि जपै तजि में सुख सौ शिवधान लयो है ||४०|l"
इनकी भाषा पर गुजराती का प्रभाव स्पष्ट लक्षित है । कवि प्रतिभा सम्पन जान पड़ते हैं ।
केशरकुशल : ( सं० १७०६ आसपास )
ये तपगच्छीय वीरकुशल के शिष्य सौभाग्य कुशल के शिष्य थे । २ इनका विशेष इतिवृत ज्ञात नही है
सांतलपुर में रचित इनकी एक २६ पद्य की ऐतिहासिक गुजराती कृति 'जगडु प्रबंध चौपाई" प्राप्त है, जिसकी रचना सम्वत् १७०६ श्रावण मास में हुई थी । ३
हिन्दी में रचित इनकी एक कृति 'वीसी' ४ प्राप्त है । यह तीर्थकरों की स्तुति में रची गई है । स्तवन सरल एवं भाववाही है । एक उदाहरण अवलोकनीय है"सीमंधर जिनराज सुहंकर, लागा तुमसु नेहावो । सलूने सांइ दिल सो दरसन देह ॥
१ जैन गॅर्ज र कवियो, भाग २, पृ० १४६
२ 'जगड प्रवन्ध चौपाई' जन गूर्जर कविओ, भाग १, पृ० १७४ ३ 'जगडु प्रवन्ध चोपई, जैन गूर्जर कविओ, भाग २, पृ० १७४ ४ जैन गुर्जर कविओ, भाग ३, खंड २. पृ०
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