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अगम अथम मग तु अवगाहत, पवन के धज प्रवहण की। विधि विधि वंध कितेही बांधत, ज्यु खलता खल जनकी ।। कबहु विकसत फुनि कमलावत, उपमा है उपवन की। कहै धर्मसिंह इन्हें वश कीन्हे, तिसना नहीं तन धन की ।। ३ ।।"
लोकगीतों के क्षेत्र में भी कवि ने स्तुत्य कार्य किया है। कवि की कुछ आधार भूत घूनों की आद्यपंक्तियां लोकप्रिय और प्रचलित हो गई हैं। कवि ने चित्रकाव्य और समस्यपूर्ति काव्य भी लिखे हैं। इनमें प्रसंगीद्भावना एवं कल्पनाशक्ति के दर्शन होते हैं । कवि धर्मवर्धन ने तत्कालीन प्रचलित प्रायः सभी काव्य शैलियों अपनाया है। कवि का व्यक्तित्व सद्धर्म-प्रचारक, भक्त, सरल उपदेशक, समर्थ विद्वान एव सरस कवि के रूप में अपनी कृतियों में प्रतिविम्बित है । आनंदवर्धन : ( सं० १७०२ - १७१२)
ये खरतरगच्छीय महिमांसागर के शिप्य थे। इनके जन्म, दीक्षा, विहारादि की जानकारी उपलब्ध नहीं। श्री मो० द० देसाई ने इनकी रचित दो कृतियों का उल्लेख किया है । १ प्रथम रचना "अर्हन्नक रास" ( सं० १७०२ ) गुजराती में तथा दूसरी रचना "चौवीसी" (सं० १७१२ ) गुजराती मिश्रित दिन्ही की रचना है । श्री नाहटा की ने इनकी राजस्थानी कृतियों में इनके अतिरिक्त "अन्तरीक स्तवन", "विमलगिरी स्तवन", "कल्याण मदिर ध्र पद” और “भक्तामर सवैया" आदि का उल्लेख किया है । २ इससे सिद्ध हैं कवि काराजस्थान तथा गुजरात से घनिष्ट संबंध रहा है । उनकी हिन्दी-रास्थानी रचनाओं पर गुजराती का अत्यधिक प्रभाव देखते हुए संभव हैं इनका जन्म गुजरात में ही कहीं हुआ हो। इनका गुजराती में रचा हुआ "अंतरिक्ष पार्श्वनाथ स्तवन" प्राप्त है। ३
विभिन्न राग-रागिनियों में निवंद्ध इनकी "चौवीसी" ४ एक बड़ी ही सुन्दर रचना है। भक्ति, वैराग्य और उपदेश विषयक कवि की यह रचना काव्य कला की दृष्टि से भी उत्तम बन पड़ी है। एक उदाहरण देखिये
"मेरे जीव में लागी आस की, तो पलक न छोडु पास रे। ज्यु जानो त्यु राखीये, तेरे चरन का हं दास रे ॥१॥
१ जैन गूर्जर कविओ, भाग २, पृ० १२४ तथा पृ० १४६ २ परम्परा, रालस्थानी साहित्य का मध्यकाल, श्रीनाहटाजी, पृ० १०६-७ ३ श्री जैन गूर्जर साहित्य रत्नो भाग १, पृ०७२, सूरत से प्रकाशित । ४ वही, कुछ स्तवन प्रकाशित, पृ० ६६-७३