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________________ २६२ आलोचना-मंट किन्तु ज्ञानानन्द, यगोविजय, विनयविजय तथा कुछ भट्टारक कवियों ने 'ग', 'ग दोनों का ही यत्र तत्र प्रयोग किया है ? आगम और लोप की प्रवृत्ति : इन कवियों में संयुक्त वर्णो को स्वर विभक्ति के दाग पृथक् पृथक करने की प्रवृत्ति भी परिलक्षित होती है। उदाहरणार्थ महात्मा आनन्दघन जी ने 'आत्मा' को 'आतम', 'भ्रम' को 'भरम', 'सर्वगी' को 'सरवंगी', 'वृनांत' को 'विरतंत' तया 'परमार्थ' को 'परमारथ' कहा है। अन्य कवियों ने भी मवद (मन्द), परिमिद्ध (प्रसिद्ध), परतछ (प्रत्यक्ष), जनम (जन्म), दरसन (दर्शन), पदारथ (पदा), मुमरन (स्मरण), परमेसुर (परमेश्वर), मूरति (मूर्ति), मरमी (मर्मी) आदि शब्द प्रयुक्त किए है। संयुक्त वर्णों को अधिक सरल बनाने के लिए कुछ कवियों में वर्गों में मे एक को हटा देने की प्रवृत्ति भी दीग्य पड़ती है। उदाहरणार्थ-यगोविजय जी ने अपनी कविता में 'अक्षय' को 'अवय'. प्रद्धि' को रिधि', 'जिनेन्द्र' को 'जिनंद' आदि का विशेष प्रयोग किया है 'स्थान' को 'थान', 'स्वरूप' को 'सव्ह', 'मोक्ष' को मोख, 'स्पर्श' को 'परसे', 'द्य ति' को 'दुति' आदि ऐसे ही प्रयोग हैं जो अधिकांग कवियों की कविता में प्रयुक्त हैं। सटीक पद-प्रयोग : ____ इस युग के कवियों की अन्य मापागत विशेषताओं में एक तो शब्दों का उचित स्थान पर प्रयोग है और दूसरा प्रमाद गुण सम्पन्नगा है। इनमें शब्दों के अपने उचित स्थान पर प्रयोग इतने उपयुक्त हैं कि उनको वहां ने हटा देने से समूचा मौन्दर्य ही नष्ट हो जाता है । उदाहरणार्थ हेमविजय के "मुनिहेम के माहब देखन कू, उग्रसेनलली सु अकेली चली" और "मुनिहेम के साहिब नेमजी हो, अब तोरन तें तुम्ह ते तुम्ह क्यूं वहुरे ।" में "उग्रसेनललि" और "बहुरे" शब्दों का अपने उपयुक्त स्थान पर होने से काव्य सौन्दर्य कितना बढ़ गया है। इसी प्रकार माहत्मा आनन्दधन के ___ "झड़ी सदा आनन्दधन वरावत, विन मोरे एक तारी" के "विनमोरे" शब्द प्रयोग में भी उक्त काव्य-सौन्दर्य के दर्शन होते हैं। रत्नकीति के "वरज्यो न माने १. भजन संग्रह, धर्मामृत, सपा० पं० बेचरदास (क) आशा पूरण एक परमेसर, सेवो शिवपुरवानी ॥ विनयविजय, पृ० ४१ (व) जा जसवाद वदे उनहा को, जैन दशा जस ऊंची ।। यशोविजयजी, पृ० ४७
SR No.010190
Book TitleGurjar Jain Kavio ki Hindi Sahitya ko Den
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHariprasad G Shastri
PublisherJawahar Pustakalaya Mathura
Publication Year1976
Total Pages353
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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