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जैन गुर्जर कवियों की हिन्दी कविता
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तूं ही यार सनेही साजन, तू ही मैडा पोऊ ।।
नणे देखण ऊमहै, मिलने कू चाहै जीव ॥२॥"१ हिन्दी गुजराती मिश्रित भाषा रूप :
"कनकमि कंकण मोड़ती, तोड़ती मिणिमिहार । लूंचती केश-कलाप, विलाप करि अनिवार ॥ ७० ॥ नयणि नीर काजलि गलि, टलवलि भामिनी भर । किम करूं कहिरे साहेलड़ी, विहि नडि गयो मझनाह ।। ७१ ।।
-वीरचन्द्र - वीर विलास फागर गुजराती :
"परमेसर शु प्रीतडी रे, किम कीजे किरतार,
प्रीत करंता दोहिलि रे, मन न रहे खिण एकतार रे, मनडानी वातो जोज्यो रे, जुजुईधातो रंग विरंगी रे,
मनडु रग विरंगी ॥ १॥" -आनन्दवर्द्धन३ इस युग के जैन-गूर्जर कवियों का गुजरात और राजस्थान से विशेष संबंध रहा है । अतः गुजराती तथा राजस्थानी भाषा के प्रभाव से ये मुक्त नहीं हो पाये है। व्रजभाषा का भी ये मोह नहीं छोड़ सके है अधिकांश कविओं ने तो शुद्ध ब्रजभाषा में अपनी कविताएं की हैं । सभी कवियों के पदों की भाषा तो ब्रजभाषा ही रही है। अरबी-फारसी शब्दों का भी सहज प्रयोग, मगलयुग और उसके प्रभाव के कारण दीख पड़ता है। कवि किगनदास ने तो अपनी "उपदेश बावनी" में आलम, जुल्म आदि इसके प्रचलित शब्दों से भी आगे बढ़ अरवी-फारसी के कुछ कठिन शब्दमिसकिन, पणम, पेशकशी, इतमाम, तशकीर आदि का भी प्रयोग किया है। आनंदघन जी ने भी तवीव, खलक, गोसलखाना, आमखास आदि शब्दों का प्रयोग किया है। "स" - "श" का विशिष्ट प्रयोग :
इस युग में "श" और "स" दोनों का ही प्रयोग हुआ है, किन्तु "स" की सर्वत्र अधिकता है। सोभा, दरसन, सरीर; सुद्ध, सरन, सुजस आदि में 'श' के स्थान पर 'स' का ही प्रयोग है, जिसे अधिकांश कवियों ने स्वाभाविकता से अपनाया है। १. जिनहर्प ग्रंथावली, संपा० अंगरचन्द नाटहा, पृ० २२५ २. राजस्थान के जैन संत - डॉ० कस्तूरचन्द कासलीवाल, पृ० १०६ ३. भजन संग्रह, धर्मामृत, पृ० ७३