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आलोच्य कविता का सामूहिक परिवेश
दमाम या रसेश्वरी का जादू नहीं है, पर बढ़ी बहन के प्रति छोटो किन्तु अधिक भाग्यशाली बहन की ममता है । यह ममता भरी सेवा, हिन्दी के विकास में इतनी उपयोगी वन पड़ी है कि अहिन्दी भाषियों ने हिन्दी की जो सेवा की है उसमें गुजरातियों का नम्बर शायद सबसे पहला है ।""
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इस प्रकार जैन गुर्जर कवियों ने १५ वीं शती से आज तक प्राचीन हिन्दी या प्राचीन पश्चिमी राजस्थानी, डिंगल, व्रण, अवधी, खड़ीबोली, उर्दू आदि भाषाओं में अनेक गौरवग्र ंथों की रचना की है । इससे यह स्पष्ट है कि हिन्दी, इन बहिन्दीभाषी जैन कवियो पर बलात् थोपी या लादी नहीं गई थी, उन्होंने उसे स्वयं ही श्रद्धा और प्रेम से अपनाया था और अपनी अभिव्यक्ति का माध्यम बनाया था । /
३. आलोच्य काल की पृष्ठभूमि ( १७वीं तथा १८वीं शती ) ऐतिहासिक पृष्ठभूमि :
जैन साहित्य के स्वरूप तथा प्रवृत्तियों का अवलोकन कर चुकने के तश्चात् आलोच्य काल ( १७वीं तथा १८वीं शती ) की ऐतिहासिक, राजनैतिक, सांस्कृतिक, धार्मिक, सामाजिक तथा साहित्यिक पृष्ठभूमि पर दृष्टिपात कर लेना भी उचित होगा । मनुष्य सामाजिक प्राणी है । भावनाओं का अक्षय कोष तथा प्रतिभावान साहित्यकार का जीवन अपने युग के समाज और जीवन से निश्चय ही प्रभावित रहेगा । मेघमाला की तरह साहित्य-सृष्टा अपने समकालीन जीवन -सागर से भाव एवं रस के कणों को अपने अन्दर भर कर उसे भव्य और स्वच्छ रूप प्रदान कर मां वसुन्धरा को ही उवर बनाने के लिए बरस पड़ता है । इस तरह वह अपने युग के प्रभावों को ग्रहण करता हुआ अपनी श्रेष्ठ रचनाओं द्वारा अपने तथा आने वाले युग को प्रभावित करता है । अतः साहित्यकारों के प्रामाणिक अव्ययन के लिए, व्यावहारिक दृष्टि से उस युग की विभिन्न परिस्थितियों का अवलोकन तथा अध्ययन आवश्यक होगा ।
आलोच्य युग हिन्दी - गुजराती का मध्यकाल या भक्तिकाल ही माना जायगा । आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने भक्तिकाल वि० सं० १४०० से १७०० तक माना है, किन्तु जैन भक्ति काव्य की दृष्टि से उसको वि० सं० १८०० तक मानना चाहिए क्योंकि जैन कवियों ने अपनी अधिकांश प्रौढ भक्तिपरक रचनाएं इसी समय में की । डाँ हजारीप्रसाद द्विवेदी ने भारत का मध्यकाल १० वीं शती से १८ वीं शती तक
१. "शिक्षण अते साहित्य" जनक दवे का लेख,
हिन्दी विकासमां गुजरातीओनो फालो, जुलाई, १९५१